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जैन दार्शनिक साहित्य का सिंहावलोकन
३०६ की थी उनका भी स्थिरीकरण युक्तियो के वल से होने लगा। पारस्परिक मतभेदो का खडन-मडन जब होता है है तब सिद्धान्तो का और युक्तियो का आदान-प्रदान होना भी स्वाभाविक है। फल यही हुआ कि दार्शनिक प्रवाह इस सघर्ष में पड कर पुष्ट हुआ। प्रारम्भ मे तो जैनाचार्यों ने तटस्थरूप से इस संघर्ष को देखा ही है किन्नु परिस्थिति ने जव उन्हे वाधित किया, अपने अस्तित्व का ही खतरा जव उपस्थित हुआ, तब समय की पुकार ने ही सिद्धसेन और समन्तभद्र जैसे प्रमुख ताकिको को उपस्थित किया। इनका समय करीब पांचवी-छठवी शताब्दी है। सिद्धसेन श्वेताम्बर और समन्तभद्र दिगम्वर थे।
जैनधर्म के अन्तिम प्रवर्तक भगवान् महावीर ने नयोका उपदेश दिया ही था। किसी भी तत्त्व का निरूपण करने के लिए किसी एक दृष्टि से नही, किन्तु शक्य सभी नय-दृष्टिबिन्दुओ से उसका विचार करना सिखाया था। उन्होने कई प्रसग में द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव-इन चार दृष्टियो से तत्त्व का विचार समकालीन दार्शनिक मतवादियो के सामने उपस्थित किया था। इस प्रकार अनेकान्तवाद-स्यावाद की नीव उन्होने डाल ही दी थी। किन्तु जब तक नागार्जुन के द्वारा सभी दार्शनिको के सामने अपने-अपने सिद्धान्त की सिद्धि तर्क के बल से करने के लिए आवाज़ नही उठी थी, जैन दार्शनिक भी सोये हुए थे। सभी दार्शनिको ने जव अपने-अपने सिद्धान्तो को पुष्ट कर लिया तव जैनदार्शनिक जागे। वस्तुत यही समय उनके लिए उपयुक्त भी था, क्योकि सभी दार्शनिक अपने-अपने सिद्धान्त की सत्यता और दूसरे के सिद्धान्त की असत्यता स्थापित करने पर तुले हुए होने से वे अभिनिवेश के कारण दूसरे के सिद्धान्त की खूवियाँ और अपनी कमजोरियां देख नही सकते थे। उन सभी की समालोचना करने वाले की अत्यन्त आवश्यकता ऐसे ही समय में हो सकती है। यही कार्य जैन-दार्शनिको ने किया।
शून्यवादियो ने कहा था कि तत्त्व न मत् है, न असत्, न उभयरूप है, न अनुभयरूप, अर्थात् वस्तु मे कोई विशेषण देकर उसका निर्वचन किया नही जा सकता। इसके विरुद्ध माख्यो ने और प्राचीन औपनिषदिक दार्शनिको ने सव को सत् रूप ही स्थिर किया। नैयायिक-वैशेपिको ने कुछ को सत् और कुछ को असत् ही सिद्ध किया। विज्ञानवादी वौद्धो ने तत्त्व को विज्ञानात्मक ही कहा और वाह्यार्थ का अपलाप किया। इसके विरुद्ध नैयायिकवैशेषिको ने और मीमासको ने विज्ञानव्यतिरिक्त वाह्यार्थ को भी सिद्ध किया। बौद्धो ने सभी तत्त्वो को क्षणिक ही सिद्व किया तव मीमासको ने शब्द और ऐसे ही दूसरे अनेक पदार्थों को अक्षणिक सिद्ध किया। नैयायिको ने शब्दादि जैसे अनेक को क्षणिक और आकाश आत्मादि जैसे अनेक को अक्षणिक सिद्ध किया। बौद्धो ने और मीमासको ने ईश्वरकर्तृत्व का निषेध किया और नैयायिको ने ईश्वरकर्तृत्व सिद्ध किया। मीमासकभिन्न सभी ने वेदापौरुषेयत्व का विरोध किया तब मीमासक ने उसीका समर्थन किया। इस प्रकार इस सघर्ष के परिणामस्वरुप नाना प्रकार के वादविवाद दार्शनिक क्षेत्र में उपस्थित थे। इन सभी वादो को जैनदार्शनिको ने तटस्थ होकर देखा और फिर अपनी समालोचना शुरू की। उनके पास भगवान् महावीर द्वारा उपदिष्ट नयवाद और द्रव्यादि चार दृष्टियाँ थीही। उनके प्रकाश में जव उन्होने ये वाद देखे तव उन्हें अपने अनेकान्तवाद-स्याद्वाद की स्थापना का अच्छा मौका मिला।
सिद्धसेन ने सन्मतितर्क में नयवाद का विवेचन किया है क्योकि अनेकान्तवाद का मलाधार नयवाद ही है। उनका कहना है कि सभी नयो का समावेश दो मूलनयो मे-द्रव्याथिक और पर्यायाथिक मे हो जाता है । दृष्टि यदि द्रव्य, अभेद,मामान्य,एकत्व की ओर होती है तो सर्वत्र अभेद दिखाई देता है और यदि पर्याय, भेद, विशेषगामी होती है तो सर्वत्र भेद ही भेद नजर आता है। तत्त्वदर्शन किसी भी प्रकार का क्यो न हो वह आखिर मे जाकर इन दो दृष्टियो में से किसी एक मे ही मम्मिलित हो जायगा। या तो वह द्रव्याथिक दृष्टि से होगा या पर्यायार्थिक दृष्टि से होगा। अनेकान्तवाद इन दोनो दृष्टियो के समन्वय मे है न कि विरोध में। मिद्धसेन का कहना है कि दार्शनिको मे परस्पर विरोध इसलिए है कि या तो वे द्रव्याथिक दृष्टि को ही सच मान कर चलते है या पर्यायार्थिक दृष्टि को ही। किन्तु यदि वे अपनी दृष्टि का राग छोड कर दूसरे की दृष्टि का विरोध न करके उस ओर उपेक्षाभाव धारण करें तव अपनी