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जैन दार्शनिक साहित्य का सिहावलोकन
तत्त्वार्थसूत्र और उस की टीकाएँ प्रागमो मे जैनप्रमेयो का वर्णन विप्रकीर्ण या। अतएव जनतत्त्वज्ञान, प्राचार, भूगोल, खगोल, जीवविद्या, पदार्थविज्ञान इत्यादि नाना प्रकार के विषयो का सक्षेप मे निरूपण करने वाले एक ग्रन्थ की प्रावश्यकता की पूर्ति प्राचार्य उमास्वाति ने की। उनका समय अभी अनिश्चित ही है, किन्तु उन्हें तीसरी-चौथी शताब्दी का विद्वान माना जा सकना है। अपने सम्प्रदाय के विपय में भी उन्होने कुछ निर्देश नही किया, किन्तु अभी-अभी श्री नाथूराम जी प्रेमी ने एक लेख लिख कर यह सिद्ध करने की चेप्टा की है कि वे यापनीय थे। उनका यापनीय होना युक्तिसगत मालूम देता है। उनका 'तत्त्वाधिगमसूत्र' श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनो सम्प्रदाय मे मान्य हुया है। इतना ही नही, वरिक जव मे वह बना है तव मे अभी तक उनका अादर और महत्त्व दोनो सम्प्रदायो मे बरावर बना रहा है। यही कारण है कि छठी शताब्दी के दिगम्बराचार्य पूज्यपाद ने उस पर 'सर्वार्थमिति' नामक टीका की रचना की। आठवी-नवी शताब्दी मे तो इसकी टीका की होड-सी लगी है। अकलक और विद्यानन्द ने क्रमश 'राजवार्तिक' और 'श्लोकवार्तिक' की रचना की। सिद्वमेन और हरिभद्र ने क्रमश बृहत्काय और लघुकाय वृत्तियो की रचना की। पूर्वोक्त दो दिगम्बर है और अन्तिम दोनो श्वेताम्बर है। ये पाँचो कृतियों दार्शनिक ही है। जैनदर्शन मम्मत प्रत्येक प्रमेय का निरूपण अन्य दर्शन के उम-उस विषयक मन्तव्य का निराकरण करके ही किया गया है। यदि हम कहे कि अधिकाग जैनदार्गनिक साहित्य का विकान और वृद्धि एक तत्त्वार्थ को केन्द्र में रख कर ही हुआ है तो अत्युक्ति नही होगी। दिग्नाग के प्रमाण समुच्चय के ऊपर धर्मकीर्ति ने प्रमाणवार्तिक लिखा और जिस प्रकार उमी को केन्द्र मे रख कर ममग्न बौद्धदर्शन विकसित और वृद्विगत हुआ उसी प्रकार तत्त्वार्थ के आसपास जैनदार्शनिक माहित्य का विकास और वृद्धि हुई है। बारहवी शताब्दी में मतयगिरि ने और चौदहवी शताब्दी मे किसी चिरन्तन मुनि ने भी टीकाएँ बनाई। आखिर में अठारवी शताब्दी में यशोविजयजी ने भी अपनी नव्य परिभाषा मे इसकी टीका करना उचित समझा और इस प्रकार पूर्व की मत्रहवी शताब्दी तक के दार्शनिक विकास का भी अन्तर्भाव इसमे हुआ। एक दूसरे यशोविजयगणी ने प्राचीन गुजराती में इसका बालावबोध बना कर इस कृति को भापा की दृष्टि से आधुनिक भी बना दिया। ये सभी श्वेताम्बर थे। दिगम्बरो मे भी श्रुतसागर (सोलहवी शताब्दी), विबुधसेन, योगीन्द्रदेव, योगदेव, लक्ष्मीदेव, अभयनन्दी सूरि आदि ने भी मस्कृत मे टीकाएँ वनाई है। और कुछ दिगम्बर विद्वानो ने प्राचीन हिन्दी मे लिस कर उसे आधुनिक बना दिया है।
अभी-अभी वीसवी शताब्दी में भी उसी तत्त्वार्थ का अनुवाद भी कई विद्वानो ने किया है और विवेचन भी हिन्दी तथा गुजराती आदि प्रान्तीय भाषाओ में हुआ है। ऐसी महत्त्वपूर्ण कृति का सक्षेप में विपय-निर्देश करना आवश्यक है।
ज्ञानमीमासा "पहले अध्याय मे ज्ञान से सम्बन्ध रखने वाली मुख्य आठ बाते है और वे इस प्रकार है-१-नय और प्रमाणरूप से ज्ञान का विभाग। २–मति आदि आगम प्रसिद्ध पाँच ज्ञान और उनका प्रत्यक्ष-परोक्ष दो प्रमाणो मे विभाजन । ३-मतिज्ञान की उत्पत्ति के साधन, उनके भेद प्रभेद और उनकी उत्पत्ति के क्रमसूचक प्रकार । ४-जन परम्परा मे प्रमाण माने जाने वाले आगम शास्त्र का श्रुतज्ञानरूप से वर्णन। ५-अवधि आदि तीन दिव्य प्रत्यक्ष और उनके भेद-प्रभेद तथा पारस्परिक अन्तर। ६-इन पांचो ज्ञानो का तारतम्य बतलाते हुए उनका विषयनिर्देश और उनकी एक साथ सम्भवनीयता। ७-कितने ज्ञान भ्रमात्मक भी हो सकते है यह, और ज्ञान की यथार्थता और अयथार्थता के कारण। -नय के भेदप्रभेद।
'देखो प० सुखलाल जी कृत 'विवेचन' की प्रस्तावना पृ० ६७ ।