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प्रेमी-प्रभिनदन-ग्रय २६२ मिथिला में, दो भद्दिय में, एक पालभिया में, एक पणियभूमि में, एक श्रावस्ती में और एक पावा में व्यतीत किये है। इस उल्लेख से स्पष्ट मालूम होता है कि महावीर का विहारक्षेत्र बिहार, उत्तर-पश्चिमी वगाल और पूर्वीय युक्तप्रान्त का कुछ भाग ही रहा है। ऐसी हालत में उनका सिन्धुसौवीर देश में जाकर उदायन को प्रतिवोध देना नही जंचता। यदि महावीर मगध से सिन्धुसौवीर गये और वहाँ से वापिस मगध लौटकर आये तो मगध और सिन्धुसौवीर के बीच में कही-न-कही उनके चतुर्मास करने का या विहार करने का तो उल्लेख अवश्य पाता, परन्तु इनकी विहारस्थली में सिन्धुसौवीर के आसपास या मगध और सिन्धुसौवीर के मध्य के प्रदेशो का कही उल्लेख नही है। मालूम होता है कि जैसे बौद्ध-ग्रन्थकारो ने आगे चलकर वुद्ध की विहारस्थली में पजाव आदि प्रदेश समाविष्ट कर लिये, वही वात समय वोतने पर जैन-लेखको ने महावीर के विषय में की। वस्तुत हमारी समझ से ये दोनो महापुरुप विहार, वगाल और सयुक्तप्रान्त के बाहर नही गये।
___ वोतिभय, जिसका दूसरा नाम कुमारपक्खेव (कुभारप्रक्षेप) भी है, सिन्धुसौवीर की राजधानी था। कहते है कि एक बार जैनदीक्षा ग्रहण करने के पश्चात् उदायन राजर्षि किसी कुम्हार के घर ठहरे हुए थे। उस समय उन्हें उनके भानजे ने विप दे दिया और उनका प्राणान्त हो गया। तत्पश्चात् वहां देवो ने धूल की घोर वृष्टि की, जिसके फलस्वरूप कुम्हार के घर को छोडकर समस्त नगर नष्ट हो गया। अतएव इस नगर का दूसरा नाम कुभारपक्खेव पड़ा। कुभारपक्खेव सिणवल्लि में अवस्थित था। सिणवल्लि एक वडा विकट रेगिस्तान था, जहां व्यापारी अक्मर मार्गभ्रष्ट हो जाते थे और क्षुधा-तृपा से पीडित हो अनेको को अपने जीवन से हाथ धोना पडता था। पजाव में मुजफ्फरगढ जिले में सनावन या सिनावत नामक एक स्थान है, जहां की जमीन ऊसर है । सम्भवत यही सिणवल्लि हो अथवा सिन्ध या पजाव का कोई अन्य रेतीला स्थान प्राचीन सिणवल्लि होना चाहिए। अभयदेव के अनुसार कुछ लोग विदर्भ देश को वोतिभय कहते हैं, परन्तु यह ठोक नही।
२१ शूरसेन (मथुरा) मथुरा के आसपास का प्रदेश शूरसेन कहा जाता था। मथुरा एक अत्यन्त प्राचीन नगरी मानी जाती है, जहाँ जैन-श्रमणो का बहुत प्रभाव था। उत्तरापथ मे मथुरा एक महत्त्वपूर्ण नगर था, जिसके अन्तर्गत छियानवे ग्रामी मे लोग अपने घरो मे और चौरायो (चच्चर-चत्वर) पर जिनमूत्ति की स्थापना करते थे। मथुरा में एक देवनिर्मित स्तूप या, जिसके लिए जैन और बौद्धो में झगडा हुआ था। कहा जाता है कि अन्त मे जैनो की जीत हुई और स्तूप पर उनका अधिकार हो गया।" मथुरा आर्यमगु और आर्यरक्षित आदि अनेक जैन-श्रमणो का विहार
'कल्पसूत्र ५१२३ 'प्रावश्यक चूणि २, पृ० ३७ 'वही, पृ० ३४, ५५३
*भगवती टीका १३६ 'उत्तरा० चूर्णि, पृ० ८२ 'वृहत्कल्पभाष्य ११७७४ इत्यादि
"व्यवहारभाष्य ५२७ इत्यादि । मथुरा के ककाली टोले की जो खुदाई हुई है, उसके शिलालेखो में गण, कुल, और शाखाम्रो का उल्लेख है। वह उल्लेख भद्रबाहु के कल्पसूत्र में ज्यो-का-त्यो मिल जाता है। इससे ज्ञात होता है कि ईसा की प्रयम शताब्दी में मथुरा में जैनो का काफी जोर था (देखिए आकियोलॉजिकल सर्वे रिपोर्ट, भाग ३, प्लेट्स १३-१५, बुहलर, दो इन्डियन सेक्ट ऑव दी जैन्स पृ० ४२-६०, वियना ओरिन्टियल जरनल, जिल्द ३, पृ० २३३-२४०; जिल्द ४, पृ० ३१३-३३१) 'मावश्यक पूणि २, पृ००
'मावश्यक पूणि, पृ० ४११