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प्रेमी-अभिनदन-प्रथ
पाये गये है, जो जैन-कला मे अपना विशेष स्थान रखते हैं। इन पर नांद्यावर्त, कमल, बेलबूटे, अष्ट मागलिक चिह्न, वच्च, स्वस्तिक आदि अकित है और इनके बीच मे समाधिमुद्रा में कोई तीर्थकर विराजमान रहते है। जैन-मूर्तिविज्ञान में ये आयागपट्ट सबसे प्राचीन और प्रसिद्ध अवशेष माने गये है। कारण, इन पर हमे सर्व प्रथम तीर्थकरो की मूर्तियाँ मिलती है। इससे पहिले वौद्ध कला की भाति जैन-कला मे भी भगवान् की पूजा केवल चिह्नो द्वारा होती थी। अधिकाश पायागपट्टो पर तो चिह्न तया मानुषीरूप दोनो का अनुपम सम्मिश्रण है।
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चित्र ३--गुप्तकालीन तीर्थकर-मूर्ति ई० म० प्रथम शताब्दी में जैन धर्म मे तीर्थकरो की पृथक् मूर्तियो का वनना प्रारभ हुआ। ये मूर्तियाँ बडे सादे ढग से बनाई जाती थी। इनमे जिन-लोग या तो सगासन में खडे रहते थे या समाधिमुद्रा में बैठे। ये मूर्तियाँ दिगम्बर सप्रदाय की होने के कारण वस्त्र-विहीन है । इनमें केवल आदिनाथ, पार्श्वनाथ या सुपार्श्वनाथ, अजितनाथ और महावीर स्वामी का चित्रण ही मिलता है। मूर्ति-विज्ञान पूर्णरूप से विकसित न होने के कारण इस समय तक चौवीसो तीर्थकरो के चिह्न, लाछन आदि ठीक-ठीक नियत नही हुए थे। इसलिए कुषाण काल की तीर्थकर मूर्तियो में एक दूमरे का भेद नही किया जा सकता है। हां, आदिनाथ के वाल (चित्र २) तथा पार्श्व और सुपार्श्वनाथ के सर्प-फण हमें केवल इनको पहिचानने में सहायता देते हैं । जैन तीर्थकरो की मूर्तियो के कलेजे पर के श्रीवत्स के कारण और सिर पर उणीप के प्रभाव के कारण हम इन्हे इस काल की बुद्ध-मूर्तियो से अलग आसानी से पहिचान सकते है। मथुरा के कलाविदो ने इसी समय से एक प्रकार की चौमुखी मूर्तियो को भी वनाना शुरू किया, जो सर्वतोभद्रिका प्रतिमा अर्थात्