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जैन प्रथो में भौगोलिक सामग्री और भारतवर्ष में जैन-धर्म का प्रसार
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आदि जैन श्रमणो ने इस नगर में विहार किया था । उज्जयनी व्यापार का वडा केन्द्र था और वडे-बडे व्यापारी लोग यहाँ वाणिज्य के लिए श्राते थे ।' आचार्य हेमचन्द्र के अनुसार यह नगर विशाला, अवन्ति और पुष्पकरण्डिनी नाम से भी प्रख्यात था । प्रद्योत और सम्प्रति उज्जयिनी के वडे प्रभावशाली राजा हो गये है ।
१९ चेदि (शुक्तिमती)
चेदि (बुन्देलखड) की राजधानी शुक्तिमती थी । मध्यप्रान्त मे अवस्थित बाँदा जिले के पास का प्रदेश शुक्तिमती माना जाता है । शुक्तिमती का उल्लेख महाभारत में आता है ।
२० सिन्धुसौवीर (वीतिभय )
अभयदेव के अनुसार सौवीर देग (सिन्ध) सिन्धु नदी के पास होने के कारण सिन्धुसौवीर कहा जाने लगा ।' सिन्धु देश में जैन-श्रमणो को विहार करना निषिद्ध कहा गया है । इस देश मे बहुत बाढ आने के कारण खतरा रहता था तथा यह चरिका, परिव्राजिका, कार्पाटिका, तच्चन्निका (बौद्धसाध्वी) तथा भागवी आदि अनेक पाखडी श्रमणियो का निवास स्थान था । अतएव यह बताया गया है कि यदि दुष्काल, विरुद्ध - राज्यातिक्रम या अन्य किसी अपरिहार्य पत्ति के कारण जैन साधु को वहाँ जाना ही पडे तो यथाशीघ्र लौट आना चाहिए। इसके अतिरिक्त इस देश में खान-पान की शुद्धता न थी । यहाँ मास भक्षण का रिवाज था और उसे निन्दनीय न समझा जाता था । यहाँ के लोग शराव पीते थे और शराब पीने के बरतन से ही पानी पी लिया करते थे।' इस देश में फटे-पुराने वस्त्र पहन कर भिक्षा पाना कठिन था । उसके लिए साफ वस्त्रो की आवश्यकता होती थी ।' जैनसूत्रो से ज्ञात होता है कि राजा सम्प्रति ने सर्वप्रथम इस देश को जैन श्रमणो के विहार-योग्य बनाया। इसका मतलब यह है कि इसके पूर्व यह देश अनार्य माना जाता था । हमारी समझ से भगवान् महावीर का मगध देश से सिन्धुसौवीर देश में जाकर राजा उदायन को प्रतिबोध देने का जो उल्लेख है, उसका उक्त उल्लेख के साथ मेल न खाने से वह सगत नही मालूम होता । जैसा हम पहले कह आये है, महावीर ने साकेत के पूर्व में अग-मगघ तक, दक्षिण में कौशाम्बी तक, पश्चिम में स्थूणा तक और उत्तर में कुणाला तक के प्रदेश को ही श्रार्यक्षेत्र माना है, फिर उनका सिन्धु- सौवीर जैसे अत्यन्त अनार्य और सुदूरवर्ती प्रदेश जाना कैसे सम्भावित है ? यद्यपि इन देशो के बाहर महावीर ने लाढ जैसे अनार्य देश मे विहार किया है, परन्तु उसका विस्तृत वर्णन जैनसूत्रो में मिलता है और वह प्रदेश बिहार के पास बगाल में ही था । वौद्धो के दिव्यावदान के अन्तर्गत उद्रायण-अवदान में राजा उद्रायण की जो कथा श्राती है, वह बहुत कुछ जैन-ग्रन्थो की कथा से मिलती-जुलती है । सम्भ है, जैन-ग्रन्थकारो ने उस कथा को अपनाकर जहाँ उदायन की दीक्षा की बात आई वहाँ उसे महावीर के हाथ से दीक्षा दिलवाकर कथा के प्रवशिष्ट भाग को पूरा किया हो। इसके अतिरिक्त, कल्पसूत्र मे महावीर ने जो बयालीस चातुर्मास व्यतीत किये, उनमें (छद्यस्थ अवस्था में) पहला चातुर्मास अस्थिकग्राम मे, तीन चम्पा और पृष्ठ- चम्पा में, आठ वैशाली और वाणियगाम में, (उपदेशक अवस्था में) चार वैशाली और वाणियगाम मे, चौदह राजगृह और नालन्दा में, छ
चूर्णि २, पृ० १५४, 'श्रभिधानचिन्तामणि ४.४२ भगवती टीका १३६
बृहत्कल्पभाव्य १.२८८१; ४५४४१ इत्यादि
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निर्युक्ति १२७६
वही १-१२३ε
निशीय चूर्णि १५, पृ० १२१ (पुण्यविजय जी की प्रति)