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कुछ जैन अनुश्रुतियां और पुरातत्त्व
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मूर्तियो का वहाँ होना इम कब्जे को मावित करता है । यह घटना कब हुई यह कहना तो कठिन है, लेकिन बुद्ध की मूर्तियो का वहाँ से मिलना ही यह बात सिद्ध करता है कि ईमा की पहली या दूसरी शताब्दी में यह घटना घटी होगी, क्योकि इसके पहले बुद्ध की कल्पना बुद्ध से सम्वन्धित पवित्र चिह्नो मे की जाती थी, जैसा कि भरहुत और साँची के चित्रो से प्रकट है । इस समय की पुष्टि ककाली टीले से मिले हुए छ वौद्ध मूर्तियो के अधिष्ठानो पर प्रति लेखी से भी होती है । ये लेख कनिष्क, हुविष्क और वामुदेव के राजत्व काल के है और वोविसत्व श्रमोघसिद्धार्थ की मूर्ति ईसा की पहली शताब्दी की है (स्मिथ द्वारा उद्धृत फुहरर, वही, पृ० ३ ) । जैन स्तूप के पास कुछ गडवडी हुई थी, इसका पता डा० * फुहरर के निम्नलिखित वात मे लगता है " एक खम्भा जिस पर शक काल का लेख उत्कीर्ण है एक प्राचीन जिनमूर्ति की पीठ काट कर बनाया गया है। एक दूसरी मूर्ति, जिस पर वैसा ही लेख है, एक अर्ध चित्रित पट को काट कर बनाया गया है जिसके पीछे एक प्राचीन लिपि में लेख है । इन बातो से इस बात की पुष्टि होती है कि शक राजत्व काल के जैन अपने प्राचीन मन्दिर की टूटी-फूटी मूर्तियो का व्यवहार नई मूर्तियों के बनाने में करते थे । वहुत प्राचीन अक्षरों में उत्कीर्ण लेख वाले तोरण के मिलने से यह पता चल जाता है कि ईसा पूर्व १५० में भी मथुरा में जैन मन्दिर था" (वही, पृ० ३) । श्रभाग्यवश अभिलेखो को देकर डा० फुहरर ने यह सिद्ध नही किया है कि वास्तव में पुरानी मूर्तियाँ बनाने वाले जैन थे, वे वौद्ध भी हो सकते है । फुहरर का यह विश्वास कि कुपाण काल के जैन अपनी पुरानी मूर्तियो को काट-छांट कर नई मूर्तियाँ बनाते थे हमे ठीक नही जँचता, क्योकि स्थापना के बाद टूट-फूट जाने पर भी देव मूर्ति श्रादर की दृष्टि मे सारे भारत में देखी जाती है और उसका उपयोग दूसरे काल में करना धार्मिक दृष्टि से ठीक नही समझा जाता । जैन-मूर्तियो की तोडफोड र पुनर्निर्माण का कारण वौद्धो का जैन स्तूप पर दखल हो सकता है ।
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