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प्रेमी-अभिनदन-प्रथ
२ अग (चम्पा) प्राचीन काल मे अग मगध देश के ही अन्तर्गत माना जाता था। अगलोक की गिनती सिंहल (सीलोन), बब्बर, चिलात लोक, जवणदीव, आरबक, रोमक, अलसन्द (एलेक्जेन्डिया) तथा कच्छ इन देशो के साथ की गई है। कहा जाता है कि भरत-चक्रवर्ती ने दिग्विजय के समय इन देशो को जीतकर इन पर अपना अधिकार किया था।' भागलपुर तथा मुगेर जिलो को प्राचीन अग माना जाता है।
चम्पा (भागलपुर) अग देश की राजधानी थी, जिसकी गणना दस राजधानियो में की गई है। प्राचीन भारत में चम्पा एक अत्यन्त सुन्दर और समृद्ध नगर था। यह व्यापार का एक बहुत बडा केन्द्र था और यहाँ वणिक् लोग बडी दूर-दूर से माल खरीदने आते थे। चम्पा के व्यापारी अपना माल लेकर मिथिला, अहिच्छत्रा, पिहुड (चिकाकोल और कलिंगपट्टम का एक प्रदेश) आदि अनेक स्थानो में व्यापार के लिए जाते थे। राजगृह की तरह महावीर ने चम्पा में भी अनेक चतुर्मास किये थे और महावीर के अनेक शिष्यो ने यहाँ विहार किया था। सम्मेदशिखर की तरह जैन-ग्रन्थो में चम्पा एक पवित्र तीर्थ माना गया है, जहाँ से अनेक निर्ग्रन्थ तथा निर्गन्थिनियो ने मुक्ति पाई। श्रेणिक की मृत्यु के पश्चात् कूणिक (अजातशत्रु) को राजगृह में रहना अच्छा न लगा और उसने चम्पा को अपनी राजधानी बनाया। दधिवाहन चम्पा का दूसरा उल्लेखनीय राजा था। चेटक की कन्या पद्मावती इसकी रानी थी। एक बार कौशाम्बी के राजा शतानीक ने दधिवाहन पर चढाई की और दधिवाहन अपनी रानी और वसुमती नामक कन्या को छोडकर भाग गया। शतानीक का एक ऊँट-सवार वसुमती को कोशाम्बी ले आया और उसे वहां के एक समृद्ध व्यापारी के हाथ बेच दिया। आगे जाकर यही वसुमती चन्दनबाला के नाम से प्रसिद्ध हुई, जो महावीर की सर्वप्रथम शिष्या बनी और जो बहुत काल तक जैन-श्रमणियो की अग्रणी रही।
भग-मगध का दूसरा प्रसिद्ध नगर था पाटलिपुत्र अथवा कुसुमपुत्र (पटना)। चम्पा में कूणिक का देहान्त हो जाने के पश्चात् उसके पुत्र उदायी को चम्पा में रहना अच्छा न लगा और उसने पाटलिपुत्र को मगध की राजधानी बनाया। पाटलिपुत्र जैन-श्रमणो का केन्द्र था, जहाँ जैनसूत्रो का उद्धार करने के लिए जन-साधुनो का प्रथम सम्मेलन हुआ था।
३ वग (ताम्रलिप्ति) वग (पूर्वीय बगाल) की गणना सोलह जनपदो में की गई है। वग एक वडा व्यापारिक केन्द्र समझा
जाता था।
'जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति ५२ पृ० २१७ चूणि पृ० १६१ 'प्रोपपातिकसूत्र १ 'नायाघम्मकहा ८, ६, १५; उत्तराध्ययनसूत्र २१.२ "कल्पसूत्र ५.१२३ "बृहत्कल्पभाष्य १.१२२७ 'आवश्यकचूणि, २, पृ० १७१ 'आवश्यक नियुक्ति ५२० इत्यादि; कल्पसूत्र ५.१३५ 'आवश्यफ चूणि, २, पृ० १७६ 'वही, पृ० १८७