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कुछ जैन अनुभुतिया और पुरातत्त्व
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दोनो अनुश्रुतियाँ स्तूप के देवनिर्मित मानने में एक है । दोनो के अनुसार दिवाकरादि देवो की मदद से स्तूप बना । पर स्तूप एक था या पाँच इसके बारे में हरिषेण श्रौर सोमदेव की अनुश्रुतियो में भिन्नता है । हरिषेण स्तूपो की सख्या पाँच मानते है और सोमदेव केवल एक । जान पडता है कि सोमदेव प्राचीन श्वेताम्बर अनुश्रुति की ओर इशारा करते है और हरिषेण उसके वाद की किसी अनुश्रुति की ओर, जव स्तूप एक से पांच हो गये थे। रायपसेणइय सुत्त मे सूर्याभदेव द्वारा जो महावीर-वन्दना तथा स्तूप आदि का उल्लेख है शायद वही इन दोनो अनुश्रुतियो की पृष्ठ-भूमिका है । पचस्तूप कव वने इसका तो कोई वर्णन नही मिलता, पर ऐतिहासिक दृष्टिकोण से सबसे पहले इसका पता पहाडपुर से मिले गुप्त सवत् के १५९ वर्ष ( ई० स० ४७९ ) के एक ताम्रपत्र से मिलता है ( एपि० इण्डि०, २०, पृ० ५६ से ) । इसमें नगर के अधिकरणअधिष्ठान के पास एक ब्राह्मण और उसकी पत्नी द्वारा तीन दीनारों के जमा किये जाने का जिक्र है, जिनके द्वारा कुछ जमीन खरीद कर उसकी आमदनी से वट- गोहाली विहार की जैन प्रतिमा का पूजन हो सके । इस विहार का प्रवन्ध प्राचार्य गुहनन्दिन् के शिष्य-प्रशिष्य करते थे । प्राचार्य गुहनन्दिन् काशी के थे और पचस्तूपान्वय थे (वही, पृ० ६० ) । ताम्रपत्र के सम्पादक के कथनानुसार गुहनन्दिन् दिगम्वर आचार्य थे । दिगम्बर जैन-सम्प्रदाय के तीन महान् प्राचार्य वीरसेन, जिनसेन और गुणभद्र मूल-सघ के पचस्तूप नामक अन्वय में हुए है, जो आगे चलकर सेनान्वय या सेनसघ के नाम से विख्यात हुआ । धवला, जयधवला और उत्तरपुराण के आधार पर प० नाथूराम जी प्रेमी का कहना है कि स्वामी वीरसेन और जिनसेन तो अपने वश को पचस्तूपान्वय लिखते है, पर गुणभद्रस्वामी ने उसे सेनान्वय लिखा है, और वीरसेन जिनसेन के बाद अन्य किसी भी आचार्य ने किसी ग्रन्थ मे पचस्तूपान्वय का उल्लेख नही किया है (प्रेमी, जैन साहित्य और इतिहास, पृ० ४९७, वम्बई, १९४२) । स्वामी वीरसेन का स्वर्गवास प्रेमीजी के अनुसार श० स० ७४५ (सन् ८२३) के लगभग ८५ वर्ष की अवस्था में हुआ (वही, पृ० ५१२ ) । जिनसेन की मृत्यु उन्होने ६० वर्ष की अवस्था मे ग० स०७६५ ( ई० स० ७६३) में मानी है । इन सब प्रमाणो से यह पता चलता है कि पचस्तूपकान्वयवश ईसा की पाँचवी शताब्दी में विद्यमान था और इसका अन्त ईसा की नवी शताब्दी में हो गया और फिर इसका सेनान्वय नाम पडा । श्रुतावतार के अनुसार, जो पचस्तूपनिकाय से आये, उन मुनियों में किसी को सेन और किसी को भद्र नाम दिया गया और कुछ लोगो के मत से सेन नाम ही दिया गया । अव प्रश्न यह उठता है। कि दिगम्बरो का पचस्तूपनिकाय कव से चला ? इस प्रश्न के उत्तर के लिए काफी खोज की जरूरत है । मथुरा मे ककाली टीले की खुदाई से मिले बहुत से उत्कीर्ण लेखो से श्वेताम्बर जैन कुल, शाखाग्रो, गणो और आचार्यों के नाम मिलते हैं, पर उनमें पचस्तूपान्वय निकाय का कही वर्णन नही है । ई० पू० द्वितीय शताब्दी और उसके वाद, महाक्षत्रपो के राज्यकाल के मिले हुए अभिलेखो से यह सिद्ध हो जाता है कि कम-से-कम ई० पू० २०० तक तो मथुरा में जैनस्तूप वन चुका था (एपि० इडि० २, पृ० १९५-९६) । कुषाण काल के स० ५ से सवत् १८ तक के तो बहुत से जैन-अभिलेख मिले है, जिनका समय शायद ई० सन् ८३ से लेकर ई० सन् १७६ तक हम मान सकते है (विसेंट स्मिथ जैनस्तूप आँव मथुरा, पृ० ५), पर इन लेखो से न तो पचस्तूपनिकाय का ही पता चलता है न श्वेताम्बर दिगम्बरो के भेद का ही । स० ७९ मे एक लेख से तो यह भी पता चलता है कि वासुदेव के राज्यकाल तक इस स्तूप का नाम देवनिर्मित था (वही, पृ० १२ ) । डा० फुहरर का कहना है कि ककाली टीला पर वीच वाला मन्दिर तो श्वेताम्वरो का था, पर दूसरा मन्दिर दिगम्बरो का था, जो वही पर मिले एक लेख के अनुसार वि० स० १०८० या ई० सन् ' १०२३ तक दिगम्बरो के हाथ में या (वही, पृ० ६) । पर इस कथन में प्रमाणो का सर्वदा अभाव है, क्योकि तथाकथित दिगम्बर मन्दिर से मिले हुए अभिलेख और मूर्तियाँ तथाकथित श्वेताम्बर मन्दिर से मिले हुए मूर्तियो और अभिलेखो से सर्वथा अभिन्न है । इन सव प्रमाणो को देखते हुए तो यही कहना पड़ता है कि जहाँ तक मथुरा का सम्वन्ध है वहाँ तक तो ईसा की दूसरी शताब्दी तक श्वेताम्बरो दिगम्बरो का भेद नही मिलता । हम देख श्राये है कि दिगम्बर-मत मथुरा के स्तूप को पचस्तूप मानने में एक नहीं है, सोमदेव उसे देवनिर्मितस्तूप और हरिषेण पचस्तूप मानते है । वास्तव में मथुरा के पुराने स्तूप का नाम देवनिर्मित था । लगता है कि ईसा की दूसरी शताब्दी