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काफल-पाक्कू
श्री चन्द्रकुंवर बाल [हिन्दी के इस अज्ञात पर प्रति श्रेष्ठ कवि के निम्नलिखित मुक्तक में पहली बार शेली की 'स्काईलार्क' का उल्लास प्राप्त हुआ है। वासुदेवशरण अग्रवाल]
है मेरे प्रदेश के बासी! छा जाती वसन्त जाने से जब सर्वत्र उदासी झरते झर-झर कुसुम कभी, धरती बनती विधवा-सी गन्ध-अन्ध अलि होकर म्लान गाते प्रिय समाधि पर गान ! तट के अघरो से हट जाती जव कृश हो सरिताएँ । जब निर्मल उर में न खेलती चचल जल-मालाएँ ! हो जाते मीन नयन उदास लहरें पुकारती प्यास प्यास ! गलने लगती सकरुण-स्वर से जब हिम-भरी हिमानी जब शिखरो के प्राण पिघल कर वह जाते बन पानी ! वानी रहते पाषाणखड जिन पर तपता दिनकरप्रचड, सूखे पत्रों की शय्या पर, रोती अति विकल बनानी ! छाया कहीं खोजती फिरती बन-बन में वन-रानी ! जिसके ऊपर कुम्हला किसलय गिरते सुख-से हो करके क्षय उसी समय मरु के अन्तर में सरस्वती-धारा-सी ले कर तुम आते हो हे खग, हे नन्दन-बन-बासी ! प्लावित हो जाते उभय कूल । धरती उठती सुख-सहित फूल ! पी इस मधुर कंठ का अमृत खिल उठती बन-रानी लता-लता में होने लगती गुजित गई जवानी | . तुम शरच्चन्द्र से मधुर-किरण ! आलोक रूप, तुम अमृत-कण , किसलय की झुरमुट में छिप कर सुधा-धार करते वर्षण !
सुनती वसुधा ग्वाल-बालिका-सी हो कर के प्रेम-मगन ! 'काफल-पाक्कू एक पहाडी पक्षी का नाम है जो ग्रीष्म ऋतु में पर्वतप्रदेशों में प्राता है। उसकी बोली 'काफलपाक्कू, काफल पाक्कू होने के कारण उसका यह नाम पडा है। काफल एक पहाडी जगली फल का नाम है। बोली से समझा जाता है कि यह पक्षी काफल के पकने की सूचना दे रहा है।