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जायसी का पक्षियों का ज्ञान
श्री सुरेशसिंह __ "मूर मूर तुलमी ममी उडुगन केशवदास" के रचयिता ने भले ही जायसी को छोड दिया हो, लेकिन जिसको साहित्य का थोडा भी ज्ञान है वह भली भांति जानता है कि हमारे साहित्य-गगन मे जायसी आज भी ध्रुव की तरह अबल और अमन्द है।
सूर की ब्रजमावुरी ने सारे देश को मवुमय अवश्य कर दिया और तुलसी ने अपनी भक्ति की मन्दाकिनी से समूचे राष्ट्र में चेतनता की एक लहर अवश्य दौडा दी, लेकिन इन दोनो भक्त महाकवियो के पूर्व ही जनता के इस कवि ने प्रेम का जो विशद वर्णन अपने 'पद्मावत' में किया है वह हमारे साहित्य की एक निधि है। जनता की सच्ची अनुभूति, उमके रहन-सहन, आचार-विचार और उसकी वास्तविक स्थिति का जैसा सजीव चित्र जायसी ने खींचा है, वसा चित्र खीचने में शायद ही किसी कवि को इतनी सफलता मिली हो।।
व्रजभाषा अपने माधुर्य से देश के कोने-कोने में सांस के समान भले ही समाई रही हो, पर महाकाव्य रचे जाने का गौरव अवधी को ही मिला। 'रामचरितमानस' और 'पद्मावत' अवधी भापा के दो महाकाव्य है, जो हमारे लिए आज भी पथ-प्रदर्शक का काम कर रहे है। वीरगाथा के महाकाव्य पृथ्वीराज रासो का समय बीत चुका या। देश विजेता के सम्मुख नतमस्तक खडा था। वह राजनैतिक दासता की शृखला शिथिल होने से पहले ही मानसिक गुलामी की जंजीर में बंधने जा रहा था। देश की रक्षा करने वाले तलवार फेककर इम लोक की अपेक्षा परलोक की चिन्ता में पड़ गए थे। देश में एक प्रकार की अस्तव्यस्तता-सी फैली थी। ऐसे परिवर्तन के समय जायसी साहित्याकाश में एक प्रकाश पुज के समान उदित हुए। उन्होने अपनी प्रेमगाथा की लोरी सुनाकर देश को सुलाने का प्रयत्न किया, किन्तु देश में जो अशान्ति और क्षोभ के घने वादल घिरे थे वे गम-कृष्ण के प्रेम की शत-गत धाराओ से वरस पडे। सूर और तुलमी के भक्ति-प्रवाह के आगे कोई भी न ठहर सका और सारा देश राम-कृष्णमय हो उठा। उम प्रवल आँधी मे जायसी एकदम पीछे पड गये और यही कारण है कि आज हम उनकी अमर रचना के बारे में बहुत कम जानते हैं। ___यह सब होते हुए भी जायसी का महत्त्व किसी प्रकार कम नहीं होता। उनका 'पद्मावत' उर्दू-फारमी की ममनवियों के ढग का प्रेमगाथा काव्य भले ही हो, लेकिन यह तो मानना ही पडेगा कि उसका निर्वाह उन्होने हिन्दी म बहुत सफलता से किया है। प्रेम की रीति-नीति और लोक व्यवहार की ऐसी जानकारी इस कवि को थी कि जिस विषय पर उसने कलम उठाई है, उमे पूर्ण ही करके छोडा है।।
___क्या युद्धवर्णन, क्या नगरवर्णन और क्या प्राकृतिक सौन्दर्यवर्णन, सभी तो अपनी चरमसीमा तक पहुंच गये है। वादगाह-भोजबड तो जायमी की वहुमुखी प्रतिमा की वानगी ही है। इसके अलावा उनका पशु-पक्षी वर्णन तो इतना स्वाभाविक हुअा है कि वहाँ तक हिन्दी का कोई भी कवि आज तक नहीं पहुंच सका । प्रत्येक विषय का इतना नान कैमै एक व्यक्ति को प्राप्त हो गया, कभी-कभी यह मोच कर आश्चर्यचकित हो जाना पडता है। फिर पक्षिनास्त्र के अध्ययन का तो हमारे यहां कोई साधन भी नही था। हमारे कवि पक्षियो के काल्पनिक वर्णन में ही सदा ने तरह। उन्हें हस के क्षीरनीरविवेक, चक्रवाक के रात्रिवियोग, कोयल-पपीहे की विग्हपुकार, चकोर का चन्द्र के प्रयाग में आग खाने के खेल और तोता-मैना की कहानी से ही अवकाश नहीं मिलता था, अन्य पक्षियो का वास्तविक पन कसे करते । किन्तु जायमी ने इस साहित्यिक परिपाटी का निर्वाह करते हुए पक्षियो का बहुत ही स्वाभाविक कार मुन्दर वर्णन किया है, जिससे यह स्पष्ट हो जाता है कि इस विषय का उनका कितना व्यापक अध्ययन था।