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कुछ जैन अनुश्रुतिया और पुरातत्त्व
२३७ द्वार मे पादलिप्त का सम्वोधन तरग वैक्कार से किया गया है। श्रार्य रक्षित का निधन -काल वि० स० १२७ माना गया ह ( ११४ कल्याणविजय जी के अनुसार) और अगर यह बात सच है तो आर्य - रक्षित के बाद पादलिप्त का नाम उनके ग्रन्थ में से या सकता है ।
जैसा ऊपर कहा जा चुका है जैन-धनुश्रुतियाँ एक स्वर से पादलिप्त और मुरुण्डो की समकालीनता पर जोर देती है । पादलिप्त का समय निर्धारित करने के लिए यह आवश्यक है कि हम मुरुण्डो का इतिहास जानें । डा० वागची ने इंडियन हिस्ट्री काग्रेस के प्राचीन इतिहास विभाग के सभापति की हैसियत से जो भाषण दिया था (दि प्रोसीडिंग्स at इडियन हिस्ट्री काग्रेस, सिक्स्थ सेशन, १९४३) उससे मुरुण्डो के इतिहास पर काफी प्रकाश पडता है । डा० वागची स्टेन कोनो के इस विचार से सहमत नही है कि मुरुण्ड शक थे । वे पुराणो के इस मत का समर्थन करते है, जिसके अनुसार मुरुण्ड शको से भिन्न माने गए है (वही, ३६-४० ) ।
मुण्डो का पता समुद्रगुप्त के इलाहावाद के अभिलेख से चलता है । इस लेख में मुरुण्ड गुप्त भृत्य माने गए है | मुरुड शव्द खोह के छठवी शताब्दी वाले ताम्रपत्र में भी आता है । इसमें कहा गया है कि उच्छकल्प के महाराज सर्वनाथ की माता मुरुण्ड देवी या मुरुण्ड स्वामिनी थी (वही, पृ० ४० ) ।
प्रो० सिलवेन लेवी को खोजो के अनुसार प्राचीन चीनी इतिहास में भी मुरुण्डो का नाम श्राता है । सन् २२२-२७७ के वीच एक दूत-मण्डल फुनान के राजा द्वारा भारतवर्षं भेजा गया । करीव ७००० ली की यात्रा समाप्त करके मडल इच्छित स्थान को पहुँचा । तत्कालीन भारतीय सम्राट ने यूनान के राजा को बहुत सी भेंट की वस्तुए भेजी, जिनमें यूवी देश के चार घोडे भी थे। फूनान जाने वाले भारतीय दूत - मण्डल की मुलाकात चीनी दूत से फूनान दरबार में हुई। भारत के सम्वन्ध में पूछे जाने पर दूत- मण्डल ने बतलाया कि भारत के सम्राट की पदवी मिउ-लुन थी और उसको राजधानी, जहाँ वह रहता था, दो शहर पनाहो में घिरी थी और शहर की खातो में पानी नदी की नहरो से आता था । यह वर्णन हमें पाटलिपुत्र की याद दिलाता है (वही, पृ० ४० ) ।
उपरोक्त वर्णन में श्राया हुआ मिउ-लून चीनी भाषा में मुरुण्ड शब्द का रूपान्तर मात्र है ।
बहुत से पक्के सबूतो के न होते हुए भी यह तो कहा ही जा सकता है कि कुषाण और गुप्त काल के वीच मुरुण्ड राज्य करते थे। टालेमी की भूगोल और चीनी इतिहास के प्राधारो से यह विदित होता है कि ईसा की दूसरी और तीसरी गताव्दी में मुरुण्ड पूर्वी भारत में राज्य करते थे (वही पृ० ४१) ।
इन सबूतो के आधार पर प्रो० वागची निम्न लिखित निर्णय पर पहुँचते है "यह कहने में कोई हिचक न होनी चाहिए कि मुरुण्ड तुखारो के साथ भारत श्राए और उन्होने पूर्वी भारत में पहले तुखारो के भृत्यो के रूप मे और बाद मे स्वतन्त्र रूप से राज्य स्थापना की। यू-ची लोगो के साथ उनका सम्वन्ध उन चार यू-ची देश के घोडो से प्रकट होता है जो मुरुड द्वारा नान के राजा को भेट दिए गए: । जव हेमचन्द्र अभिवान - चिन्तामणि मे लम्पाको धौर मुरुण्डो को एक मानते हैं तो इससे यह न मान लेना चाहिए कि मुरुण्डो से हेमचन्द्र के समय मे भी लोग परिचित थे । हेमचन्द्र का श्रावार कोई प्राचीन स्रोत था जिसे यह विदित था कि मुरुण्ड लमधान होकर आए । भारतवर्ष पर चढाई करते हुए शको ने यह रास्ता नही पकडा था। शक पूर्वी भारत तक पहुँचे भी न थे और कोई भी पुराना ग्रन्थ पाटलिपुत्र के माथ शको का सम्वन्ध नही बतलाता। इन सब बातो पर ध्यान रखते हुए यह कहा जा सकता है कि मुरुण्ड कुपाणी की तरह तुखारो का एक कवीला था, जो कुषाणो के पतन और गुप्तो के अभ्युत्थान के इतिहास के बीच में खाली हिस्से की खानापूरी करता है । यह बात पुराणकारो को मालूम थी ।"
"हम मुरुण्डो की स्थिति का तुखारो के साथ-साथ मध्य एशिया मे अध्ययन कर सकते हैं । ग्रीक श्रीर रोमन लेखक, जैसे स्त्रावो, प्लिनी और पेरिगेट एक फिनोई नाम के कवीले का नाम लेते हैं, जो तुखारो के श्रासपास रहता था। अगर प्लिनी की बात हमें स्वीकार है तो फिनोड या फुनि प्रत्तकोरिस पर्वत के दक्षिण में रहते थे, तुम्हार या तोखरि फिनोइ के दक्षिण में और कमिरि या कश्मीर तुखारो के दक्षिण मे । फिनोइ का संस्कृत मे