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प्रेमी-प्रभिनदन-प्रय २३६ किंवदन्तियों मिलती है, और तित्थोगाली के पाडिवत् एक ही रहे हो। अगर हमारा यह अनुमान राही है तो पादलिप्त के काल के सम्बन्ध में कुछ अनुश्रुतियाँ उपलब्ध होने से हम पाटलिपुत्र की बाढ का समय निश्चित कर सकते हैं।
___'प्रभावक-चरित' में (गुजराती भाषान्तर, प्रस्तावना लेखक कल्याणविजय जी,भावनगर, स.१९८७), जिसे प्रभाचन्द्र सूरी ने स० १३३४ (ई० १२७७) में लिखा, बहुत से जैन-साधुओ की जीवनियां दी हुई है। सकलन परिपाटो के अनुसार प्राचीन जैन-प्राचार्यों की जीवनियो में बहुत सी बाद को किंवदन्तियो का भी समावेश हो गया है। लेकिन साथ-ही-साथ उनमें बहुत सी ऐसी ऐतिहासिक अनुश्रुतियो का सकलन भी है, जिनकी मचाई का पता हमें दूसरी जगहो से भी मिलता है।
___ 'प्रभावक-चरित' में इसका उल्लेख मिलता है कि पादलिप्त के गुरु ने उन्हें मथुरा जन-सघ की उन्नति के लिए भेजा। कुछ दिनो मथुरा ठहर कर वे पाटलिपुत्र गए, जहां राजा मुरुण्ड राज्य करता था। एक गुथी हुई डोरे की पेचक को सुलझा कर तथा राजा की शिर पीडा शात करके पादलिप्ताचार्य ने पाटलिपुत्र मे तथा राज-दरवार में अपना प्रभाव जमा लिया (वही०पू०४८-४६)।
पादलिप्ताचार्य रुद्रदेव सूरी, श्रमणसिंह सूरि, आर्य खपट और महेन्द्र उपाध्याय के समसामयिक थे। पहले दो प्राचार्यों से पादलिप्त के सबन्ध का केवल इसी बात से पता लगता है कि जिस समय पादलिप्त मान्यखेट गए थे तो उस समय दोनोप्राचार्य वहाँ उपस्थित थे। खपट तथा महेन्द्र के साथ पादलिप्त की समकालीनता का वर्णन कुछ धुंधला सा है। खपट को जोवनी के अन्त में यह कहा गया है कि पादलिप्त ने खपटाचार्य से मनशास्त्र की शिक्षा पाई थी (वही प्रस्तावना, पृ० ३२-३३)। खपटाचार्य का समय विजयसिंह सूरि प्रवन्ध की एक गाथा के अनुसार वीर निर्वाण स० ४८४ या ४० ई० पू० है जो कल्याणविजय जी के मतानुसार खपट का मृत्यु काल होना चाहिए (वही, पृ० ३३)। चाहे जोहो, खपट को ऐतिहासिकता में कोई शक करने की जगह नहीं है, क्योकि प्राचीन जैन-साहित्य मे "निषीथ चूणि' में उनका नाम बराबर पाया है (वही, पृ० ३३)।
खपट के शिष्य महेन्द्र के बारे में एक कथा प्रचलित है, जिसमें कहा गया है कि महेन्द्र के समय पाटलिपुत्र का राजा दाहड सब मतो के साधुओको तग करता था। वह बौद्ध भिक्षुओ को अनावृत्त करवा देता था, शैव साधुलो की जटाएं मुंडवा देता था, वैष्णव साघुप्रो को मूर्ति-पूजा छोडने पर वाध्य करता था और जन-साधुओ को सुरा-पान पर मजबूर करता था। राजा के व्यवहार से घबराकर जैन-सघ ने महेन्द्र की, जो उन दिनो भरुकच्छ में रहते थे, सहायता चाही। कहा जाता है कि महेन्द्र ने राजा को अपने वश में करके पाटलिपुत्र के ग्राह्मणो को जैन-दीक्षा दिलवा दी (वही, पृ० ५७-५६)।
मुनि कल्याणविजय जी का कहना है कि दाहड शायद शुग राजा देवभूति था और ब्राह्मण-धर्म का पक्षपाती होने के कारण उसने जैनो से ब्राह्मणो को नमस्कार करवाया और इसी बुनियाद पर वे खपट और महेन्द्र का नाम समय विक्रम कोप्रथम शताब्दी या उसके कुछ और पहले निर्धारित करते है (वही, पृ० ३३)।
पादलिप्त का समय निर्धारित करते हुए कल्याणविजय जी उनके मुरुण्ड राजा के समकालीन होने पर जोर देते है। मुरुड राजा कल्याणविजयजी के अनुसार कुषाण थे और पादलिप्त के समकालीन मुरुड राजा कुषाणो के राजस्थानीय थे और इनका नाम पुराणो के अनुसार विनस्फणि (अशुद्ध विश्वस्फटिक 'स्फणि स्फूर्ति' इत्यादि) था (वही, पृ० ३४)। इस आधार पर वे पादलिप्त का समय विक्रम की दूसरी शताब्दी का अन्त या तीसरी का प्रारम्भ मानते है। नागहस्ति पादलिप्त के गुरु थे और नन्दिनी पट्टावलि और युग प्रधान पट्टावलियो के अनुसार उनको समय विक्रम स० १५१ और २१६ के बीच में था। इस बात से भी मुनि कल्याणविजय पादलिप्त के समय के बारे में स्व-निर्धारित मत की पुष्टि मानते है (पृ० ३४)। श्री० एम० वी० झबेरी मुनि कल्याणविजय द्वारा निर्धारित पादलिप्त के समय को ठोक नही मानते (कपरेटिव एड क्रिटिकल स्टडी भाव मन्त्र-शास्त्र, पृ० १७६ फुट नोट)। उनका कहना है कि पार्य-रक्षित के अनुयोग