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प्रेमी-अभिनदन-प्रथ मानते है (गॉर्डन, वही, पृ० १५७)। इन मूर्तियो का समय तबतक ठोक निश्चित नहीं हो सकता जवतक खुदाई विलकुल वैज्ञानिक ढग से न की जाय। लगता है कि वसाढ के स्तरो मे कुछ उलट-पुलट हो जाने मे ऊपर-नीचे की वस्तुएँ बहुधा मिल गई है (सूनर, वही, पृ० ११४)। रही ईरानी प्रभाव की प्राचीनता की वात । मौर्यकाल में विशेषकर अशोककाल की कली मे कुछ अलकरण ईरानीकला से लिये गये, लेकिन पाया कि वह प्रभाव क्षणिक था या उसका विस्तार हुना, इसका अभी हमें विशेष पता नही है । लेकिन ईरानी या यो कहिए पूर्व ईरानी भाषा बोलने वाले शक ई० पू० प्रथम शताब्दी मे मथुरा तक आ धमके, व्यापारी या यात्री के रूप में नहीं, वरन् विजेता होकर । तव उनके साथ आई हुई ईरानीकला की भारतीयकला पर छाप पडना अवश्यम्भावी था और इसी के फलस्वरूप हम भारतीयकला में विदेशी वस्त्रो मे आच्छादित टोपी पहने हुए मध्य एशिया के लोगो के दर्शन करते है । कुषाण काल में एक ऐसे वर्ग की मृणन्मतियो का प्रचलन हुना जो केवल विदेशियो का प्रदर्शन मात्र करती है। डा० गॉर्डन ने बडे सूक्ष्म अध्ययन के बाद ऐसी मृणन्मूर्तियो का समय ई० पू० पहलो शताब्दी से ई० सन् तीसरी शताब्दी तक रक्खा है। वमाढ के ईरानी प्रभाव से प्रभावित मृणन्मूर्तियाँ भी इसी समय की है और विहार पर मुरुण्ड-कुपाण राज्य की एक मात्र प्राचीन निगानी है। भविष्य के पुरातत्त्ववेत्ताओ का यह कर्तव्य होना चाहिए कि उन सबूतो को इकट्ठा करे, जिनसे पूर्व भारत का शको और कुषाणो मे सम्बन्ध प्रकट होता है। ऐसा करने मे इतिहास की बहुत सी भूली बातें हमारे सामने आ जायेंगी तथा जैन ऐतिहासिक अनुश्रुतियो के कुछ अवोध्य प्रशो पर भी प्रकाश पडेगा।।
पाटलिपुत्र के वाढ-सम्वन्धी प्रमाणो की जांच करने पर हम निम्नलिखित निष्कर्षों पर पहुंचते है-(१) वाढ राजा कल्की के राज्यकाल में आई । वह सब धर्मों के माधुओ और भिक्षुओ को सताता था। (२) वह कौन सा ऐतिहासिक राजा था, इसके सम्बन्ध में ऐतिहासिको की एक राय नही है। उसका पुष्यमित्र होना, जैसी मुनि पुण्यविजय जी को राय है, सम्भव नहीं है, क्योकि पुरातत्त्व के प्रमाण के अनुसार वाढ ई० सन् की पहली या दूसरी शताब्दी में आई। शायद कल्की पुराणो का विश्वस्फर या कुषाण लेखो का वनस्फर रहा हो। (३) अगर तित्थोगाली के आचार्य पाडिवत् और चूणियो और भाष्यो के पादलिप्त एक ही है तव वाढ ईसा की पहली या दूसरी शताब्दी मे आई, क्योकि यही पादलिप्त का समय माना जाता है। (४) पुराणो और चीनी-साहित्य के प्रमाणो के आधार पर मुरुण्ड, जो पादलिप्त के समकालीन थे, इसी काल में हुए। (५) यह सम्भव है कि वाढ वाली घटना कुषाण राज्य के प्रारम्भ में घटी हो, क्योकि एक वाह्य सस्कृति का देश की प्राचीन संस्कृति से द्वन्द्व होने से धार्मिक असहिष्णुता और उसके फलस्वरूप प्राचीन धर्म के अनुयायियो पर अत्याचार होना कोई अनहोनी घटना नहीं है। तित्योगाली के कल्कि का - अत्याचार तथा पौराणिक विश्वस्फाणि, जो शायद कुषाण अभिलेखो का वनस्फर था, के अनार्य कर्म शायद ईसा की पहली शताब्दियो की राजनैतिक और सास्कृतिक उथल-पुथल के प्रतीक है। (६) पुरातत्त्व से अभी तक मुरुण्ड और कुषाणो का पूर्व भारत मे सम्बन्ध पर विशेष प्रकाश नही पडा है। फिर भी कुछ मृणन्मूर्तियो के आधार पर यह कहा जा सकता है कि शक सस्कृति का प्रभाव विहार में ई० पू० प्रथम शताब्दी में पड चुका था और वाद मे वह और वढा।
जैन-साहित्य में कुणाला या श्रावस्ती में भी एक बडी वाढ पाने की अनुश्रुति है। आवश्यक-चूणि (पृ० ४६५, रतलाम, १९२८) मे इसकी कथा इस भांति दी हुई है "कुणाला में कुरुण्ट और उत्कुरुण्ट नाम के दो आचार्य नगर की नालियो के मुहाने पर रहा करते थे। वर्पा-काल में नागरिको ने उन्हें वहाँ से निकाल भगाया। क्रोध में आकर कुरुण्ट ने श्राप दिया, "हे देव | कुणाला पर वरसो।" छूटते ही उत्कुरुण्ट ने कहा, "पन्द्रह दिन तक।" कुरुण्ट ने दुहराया, "रात और दिन।" इस तरह श्राप देकर दोनो नगर छोडकर चले गये। पन्द्रह दिनो तक घनघोर बरसात होती रही और इसके फलस्वरूप कुणाला नगरी और तमाम जनपद बह गये। कुणाला की वाढ के १३ वरस वाद महावीर स्वामी केवली हुए।" मुनि कल्याणविजय की गणना के अनुसार ४३ वर्ष की अवस्था में महावीर केवली