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संस्कृति या सभ्यता ?
श्री किशोरलाल घ० मश्रूवाला
मेरी राय में सारी दुनिया में दो ही तरह की मानव-सस्कृतियां (Cultures) है। एक को मै भद्र-मस्कृति कहना हूँ और दूसरी को सन्त-नम्कृति ।)
(भद्र-नकृति विभूति श्रर ऐवनयं प्रधान है। वह दुनियावी ज्ञान-विज्ञान, श्रधिकार, पराक्रम, वैभव आदि में श्रद्धा रखती है । स्वय को और अपने लोगो को दुनिया में महान-भूमा बनाना चाहती है । वह सब मनुष्यों का एक-ना विकार स्वीकार नहीं करती । उनमें ऊँच-नीच, अधिकारी-श्रनधिकारी आदि भेदो के लिए जगह है । टम्बर का शौक है |
मन्त-मस्कृति गुण प्रधान हैं। उनकी ज्ञान में श्रद्धा है, पर उसमे भी अधिक सौजन्य श्रीर समदृष्टि में है । भोग और सम्पत्ति में मर्यादा और नमानता पर और ऊँच-नीच के भाव को मिटाने पर उसका जोर रहता है । श्राडम्बर को अच्छा नही समझती ।
नस्कृति की ऐसी दो धाराएं होने हुए भी वे दो बिलकुल भिन्न दिशाश्री में एक दूसरी से अलग नहीं वहती । एक दूसरी की मीमा कभी-कभी परपना मुश्किन होता है ।
लेकिन जगत् भर में इन दो के अलावा कोई नोमरी सस्कृति नहीं है ।
भारतीय मन्कृति, पाश्नात्य सस्कृति, इस्लामी सस्कृति, इतना ही नहीं, बल्कि वैदिक संस्कृति, जैन-सस्कृति, गुजरानी -नम्कृति, प्रान्ध्रकृति श्रादि श्रनेक नस्कृतियों का श्राज नाम लिया जाता है। इन्हें सभ्यता (Civilisation) कहे तो शायद श्रच्छा हो ।
मेरी राय में इन नव सभ्यताओं में कोई न्यायी तत्त्व नहीं है । देश, काल, शिक्षा, अभ्यास श्रादि के कारण बने हुए ये श्राचार, विचार श्रीर स्वभाव के भेद हैं । वे इनके बदलने में बदल जाते है । इनमें कोई चीज ऐसी नही है, जिसे बदल देना ग्रमम्भव हो । वे कभी-कभी प्रानुवधिक मे दिखाई देते हैं, पर वास्तव मे वे ग्रानुवशिक है नही । देश, काल, शिक्षा, अभ्यास यादि जवत एक मे रहने है तवतक कायम रहते है और एक देश या परिवार में उनका पीढियों तक एकमा रहना सम्भव है । इमलिए प्रानुवधिक मे मालूम होते हैं ।
इन सभ्यता या मानी हुई मम्कृतियों के श्राचार, विचार और स्वभाव अच्छे बुरे और ग्रगुण, तीनो तरह के होते हैं । इनका कट्टर आग्रह या अभिमान रखना में अच्छा नही समझता । ऐसी अलग-अलग मभ्यताएँ और विशिष्टताएँ टिकनी ही चाहिए, ऐमा में नही समझता । इनकी हर एक बात की हमें विवेक से तटन्य होकर जाँच करनी चाहिए और मानव हित के लिए जिन श्रशी को फेंक देने की आवश्यकता हो, उन्हें हिम्मत से फेक देना चाहिए। हम दूमरो से कुछ अलग ढंग के दीन पड़ें, ऐसी कोई जरुरत में अनुभव नही करता ।
जो कोई विशिष्टता हो, वह सारे मानव हित में आवश्यक हो तो ही वह निभाने योग्य समझनी चाहिए । विशिष्ट दीखना ही सिद्धान्त है, ऐसा नहीं समझना चाहिए ।
(मन्त-सम्कृति सारी दुनिया मे एक-मी है । भद्र-सस्कृतियो मे ही बहुत रूप-रग श्रीर झगडे है ।) सेवाग्राम ]
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