________________
प्रेमी अभिनंदन ग्रंथ
२१२
चलता है। स्ट्रेबो नामक यूनानी यात्री ने अरव और फारस के किनारो से मिश्र को जाते हुए एक सौ वीस जहाज़ी के भारती बेडे को देखा था (स्ट्रेबो, २।५।१२) । प्लिनी ने सिन्धु और पत्तल से उत्तर-पश्चिम के देशी को जाते हुए वडे जहाजो के समूह को देखा । साँची और कन्हेरी तथा श्रजन्ता की गुफाओ मे अनेक बडे जहाजो के भित्ति चित्र मिलते है । मदुरा के मन्दिर मे भी एक विशाल जहाज चित्रित है। कोरोमंडल से मिले हुए यज्ञश्रीशातकणि के कुछ सिक्को पर दो मस्तूल वाले जहाज़ो के चित्र है । मनुस्मृति, याज्ञवल्क्य स्मृति, नारद स्मृति तथा बृहत्सहिता आदि ग्रन्थो से अनेक प्रकार की जल-यात्राओ के वर्णन पाये जाते हैं । अजन्ता मे विहार यात्राओ के लिए प्रयुक्त अनेक सुन्दर नौकाओ के भी चित्र है ।
मध्यकाल में भारतीयो की जलयात्रा को देश की समृद्धि के कारण अधिक प्रोत्साहन मिला। इस युग में भारत और अरव के बीच व्यापारिक सम्वन्ध घनिष्ठ हुए । अल इद्रिसी आदि अरवी यात्रियो के वर्णनो से भारत की व्यापारिक उन्नति तथा भारतीय बन्दरगाहो की वृद्धि का हाल ज्ञात होता है । दक्षिण-पूर्व के देशो और द्वीपो में भारतीय उपनिवेश गुप्त काल के पहले ही स्थापित हो चुके थे । मध्यकाल मे श्रीक्षेत्र, कवुजराष्ट्र (कवोडिया), चम्पा ( अनाम ), स्वर्णद्वीप (सुमात्रा) तथा सुवर्णभूमि (बर्मा) आदि देशो से भारत के सास्कृतिक और व्यापारिक सम्वन्ध अधिक घनिष्ठ हुए। चीन तथा जापान से भी ये सम्बन्ध दृढ हुए । तत्कालीन चीनी ग्रन्थो तथा ह्वेन्त्याग, इत्सिंग, सुगयुन आदि चीनी यात्रियो के वर्णनो से विदित होता है कि भारत तथा चीन के पडितो तथा दोनो देशो के प्रणिधि-वर्ग का पारस्परिक आवागमन पूर्ववत् द्रुतगति से जारी रहा। भारत से चीन तक का मारा समुद्र- प्रदेश भारतीय उपनिवेशो तथा बन्दरगाहो से भरा पडा था । इत्सिंग ने ऐसे दस भारतीय उपनिवेशो का वर्णन किया है, जहाँ मम्कृत के माथ साथ भारतीय रीति-रिवाजो का प्रचलन था । माघ - रचित 'शिशुपालवध' में माल से लदे हुए जहाज़ो के विदेश जाने और पश्चिम से द्वारका की ओर श्राते हुए जहाज़ो के वर्णन है । राजतरगिणी तथा कथा-मरित्सागर आदि में भी भारतीयो की समुद्री यात्राओ का पता चलता है । लगभग १००० ई० मे मालवे के परमार राजा भोज ने 'युक्तिकल्पतरु' नामक ग्रन्थ की रचना की । नौ-शास्त्र का यह ग्रन्थ अपने विषय का बेजोड और अनमोल है । इसमे भारतीय जहाज़ो श्रौर नौकाओ के अनेक रूपो के निर्माण और सचालन आदि का विशद वर्णन है । इसमे प्रकट होता है कि भारतीय जहाजी-कला कितनी प्राचीन तथा उन्नतिशील रही है । विभिन्न प्रकार के जहाजो के लिए उपयुक्त लकडियो, जहाजो के स्वरूपो तथा निर्माण सम्बन्धी विधियो के जो विस्तृत वर्णन इस ग्रन्थ-रत्न में है उनसे भारतीय मस्तिष्क के वैज्ञानिक विकास का पता चलता है, साथ ही भारतीयो के जल-यात्रा विषयक प्रेम का भी प्रमाण मिलता है ।
मुसलमानो के राज्य-काल में भी भारतीयो की यह रुचि वृद्धगत रही । मार्कोपोलो, श्रोडरिक (१३२१ ई० ), इब्नवतूता (१३२५-४६ ई०), अब्दुर्रज्जाक आदि ने जो यात्रा-वर्णन लिखे है, उनसे भारत की अतुल जहाजी शक्ति तथा व्यापार-प्रवीणता का पता चलता है । वह प्रवृत्ति मराठा काल (लग० १७२५-१८०० ई०) तक चलती रही, जिसके प्रमाण शिवाजी, कान्होजी अगिरा तथा शम्भूजी यादि के द्वारा नौ- शक्ति - सगठन मे मिलते है ।
मध्यकाल के अन्त में लगभग ई० १२वी शताब्दी में समाज का कुछ वर्ग समुद्र यात्रा का विरोधी हो गया था । इसका प्रधान कारण इस काल में जाति बन्धनो का कडा हो जाना था । पर वणिक् समाज तथा अन्य व्यापारी लोग इन नव-निर्मित स्मृतियों के जल-यात्रा - विरोधी वचनो से विचलित नही हुए। वे बाह्य देशो से बरावर आवागमनसम्वन्ध वनाये रहे, क्योकि इससे उन्हें श्रार्थिक और सास्कृतिक लाभ थे और इन लोगो से भारतीय जनता शताब्दियो से परिचित थी । परन्तु सत्रहवी शताब्दी के अन्त मे निर्मित कुछ धर्मशास्त्र निबन्ध ग्रन्थो मे समुद्रयात्रा को निन्दित कहा गया और जातीय प्रथा के सकुचित हो जाने से जनता बहुत बड़ी संख्या में समुद्रयात्रा से विमुख हो गई। इसका फल प्रत्यक्ष हुआ है और देश को विदेश यात्रा के अनेक लाभो से वचित रहना पडा है । श्रव वह समय आ गया है कि भारतवासी अपने पूर्वजो का अनुकरण कर अन्य सभ्य देशो से ज्ञान-विज्ञान- सम्वन्धी आदान-प्रदान कर अपने देश को उन्नत और समृद्ध बनावें । लखनऊ ]