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पिनि हुधा गीतम्
श्री वासुदेवशरण अग्रवाल एम० ए०, पी०एच० डी० भारत जैसे विशाल देश के लिए विचारजगत् का एक ही अमृतसूत्र हो सकता था और उसे यहाँ के विचारशील विद्वानो ने तत्त्व-मन्थन के मार्ग पर चलते हुए आरम्भ में ही ढूंढ निकाला । वह सूत्र इस प्रकार है
एक सद्विप्रा बहुधा वदन्ति
(ऋग्वेद १११६४१४६) ‘एक सत् तत्त्व का मननशील विप्र लोग बहुत प्रकार से वर्णन करते है ।' ___ इस निचोड पर जितना ही विचार किया जाय उतनी ही अधिक श्रद्धा इसके मूलद्रष्टा के प्रति मन में जागती है। सचमुच वह व्यक्ति अपने मन के अपरिमित औदार्य के कारण भारतीय दार्शनिको के भूत और भावी सघ का एकमात्र सघपति होने के योग्य था। भारतीय देश में दार्शनिक चिन्तन की जो बहुमुखी धाराएँ वही है, जिन्होने युगयुगान्तर में स्वच्छन्दता से देश के मानस-क्षेत्र को सीचा है, उनका पहला स्रोत ‘एक सद्विप्रा बहुधा वदन्ति' के 'बहुधा पद में प्रस्फुटित हुआ था। हमारे राष्ट्रीय मानस-भवन का जो वहिरितोरण है उसके उतरगे पर हमें यह मन्त्र लिखा हुआ दिखाई पडता है। मन्त्र का वहुधा' पद उसकी प्राणशक्ति का भडार है, जिसके कारण हमारे चिन्तन की हलचल सघर्ष के बीच में होकर भी अपनी प्रगति बनाये रख सकी। अपने ही वोझ से जब कभी उसका मार्ग अवरुद्ध या कुठित होने लगा है तभी उस अवरोध पर विजय पाकर 'बहुधा' पद के प्राणवन्त वेग ने उसे आगे बढाने का रास्ता दिया। '
‘एक सद्विप्रा बहुधा वदन्ति' यह विचार-सूत्र न केवल हमारे विस्तृत देश की आवश्यकता की पूर्ति करता है, किन्तु विचार के जगत् में हमारे मनीषी जितना ऊँचा उठ सके थे उसके भी मानदड को प्रकट करता है।
- इस विशाल देश में अनेको प्रकार के जन, विविध भाषा, अनमिल विचार, नाना भांति की रहन-सहन, अनमिल धार्मिक विश्वास और रीति-रिवाजो के कारण परस्पर रगड खाते हुए एक साथ बसते रहे है। किन्तु जिस प्रकार हिमालय में गगा नदी अपने उदर में पडे हुए खड-पत्थरोकी कोर छाँटकर उन्हे गोल गगलोढो में बदल देती है, उसी से मिलतीजुलती समन्वय की प्रक्रिया हमारे देश के इतिहास में भी पाई जाती है। न जाने कैसी-कैसी खड-जातियां यहाँ आकर वसी, कैसे-कैसे अक्खड विचार इस देश मे फैले, किन्तु इतिहास की दुर्धर्ष टक्करो ने सव की कोर छांट कर उन्हें एक राष्ट्रीय सस्कृति के प्रवाह मे डाल दिया। उनकी आपसी रगड से विभिन्न विचार भी घुल-मिलकर एक होते गये. ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार गगा के घण्ट में पिसी हुई वालू, जिसके कणो में भेद की अपेक्षा साम्य अधिक है।
सौभाग्य से हमारे इतिहास के सुनहले उप काल में ही समन्वय और सहिष्णुता के भाव सूर्य-रश्मियो की तरह हमारे ज्ञानाकाश में भर गये। राष्ट्रीय जन की प्राकृतिक विभिन्नता की ओर सकेत करते हुए 'पृथिवी सूक्त' का ऋषि कहता है
जन विभ्रती बहुधा विवाचसं नानाधर्माण पृथिवी यथोकसम्
(अथर्व, १२।१।४५) अर्थात "भिन्न-भिन्न भाषा वाले, नाना धर्मों वालेजन को यह पृथिवी अपनी-अपनी जगह पर धारण कर रही है, और सब के लिए दुधार गाय की भाँति धन की सहस्रो धाराएं वहा रही है।" हमारे राष्ट्रीय जन को प्रकृति की ओर से ही वहधापन' मिला है। पर मानवी मस्तिष्क ने उन भौतिक भेदो के भीतर पैठकर उनमें पिरोई हुई भावमयी एकता
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