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प्रेमी-अभिनंदन - प्रथ
ही गंगा के प्रवाह मे वह जायँगे । जल में बहते हुए वे कहेंगे - 'हे स्वामि सनत्कुमार । तू श्रमणसघ का शरण हो, यह वैयावृत्य करने का समय है।' इसी प्रकार साध्वियाँ भी सनत्कुमार की सहायता माँगती हुई मकानो के साथ वह जायँगी । इनमें कोई-कोई श्राचार्य और साधु-साध्वियाँ फलक आदि के सहारे तैरते हुए गंगा के दूसरे तट पर उतर जायेंगे । यही दशा नगरवासियो की भी होगी। जिनको नाव - फलक श्रादि की मदद मिलेगी वे बच जायँगे, बाकी मर जायेंगे। राजा का खजाना पाडिवत आचार्य और कल्की राजा यादि किसी तरह बचेंगे, पर अधिकतर बह जायँगे । बहुत कम मनुष्य ही इस प्रलय से वचने पायेंगे ।
इस प्रकार पाटलिपुत्र के बह जाने पर धन और कीर्ति का लोभी कल्की दूसरा नगर वसायेगा और बाग-बगीचे लगवा कर उसे देवनगर-तुल्य रमणीय बना देगा । फिर वहाँ देव मन्दिर बनेगे श्रीर साधुओ का विहार शुरू होगा । नुकूल वृष्टि होगी और अनाज वगैरह इतना उपजेगा कि उसे खरीदने वाला नही मिलेगा। इस प्रकार पचास वर्ष सुभिक्ष से प्रजा अमन-चैन में रहेगी ।
इसके बाद फिर कल्की उत्पात मचायेगा । पाखडियो के वेप छिनवा लेगा और श्रमणो पर अत्याचार करेगा । उस समय कल्पव्यवहारधारी तपस्वी युग प्रधान पाडिवत और दूसरे साधु दु ख की निवृत्ति के लिए छट्ट अट्टम का तप करेगे । तब कुछ समय के बाद नगरदेवता कल्की से कहेगा- 'अरे निर्दयी । तू श्रमणसघ को तकलीफ देकर क्यो जल्दी मरने की तैयारी कर रहा है ? जरा सवर कर, तेरे पापो का घडा भर गया है ।' नगरदेवता की इस धमकी की कुछ भी परवाह न करता हुआ वह साधुग्रो से भिक्षा का षष्ठाश वसूल करने के लिए उन्हें वाडे में कैद करेगा । साघुगण सहायतार्थ इन्द्र का ध्यान करेगे । तव श्रम्वा और यक्ष कल्की को चेतायेंगे, पर वह किसी की भी नही सुनेगा । आाखिर में सघ के कायोत्सर्ग ध्यान के प्रभाव से इन्द्र का श्रासन कँपेगा और वह ज्ञान से सघ का उपसर्ग देखकर जल्दी वहीं श्रायेगा | धर्म की बुद्धिवाला और अधर्म का विरोधी वह दक्षिण लोकपति ( इद्र ) जिन-प्रवचन के विरोधी कल्की का तत्काल नाश करेगा ।
उग्रकर्मा कल्की उग्र नीति से राज करके छियासी वर्ष की उमर में निर्वाण से दो हजार वर्ष बीतने पर इन्द्र के हाथ से मृत्यु पायेगा । तब इन्द्र कल्की के पुत्र दत्त को शिक्षा दे श्रमणसघ की पूजा करके अपने स्थान चला जायेगा ।
इस अनुश्रुति की अच्छी तरह से जाँच पडताल के बाद हम निम्नलिखित तथ्यो पर पहुँचते है । (१) पाटलिपुत्र में चतुर्मुख अथवा कल्की नाम का एक लालची राजा राज करता था। गडे धन की खोज में उसने नन्दो के पाँच स्तूप उखडवा डाले और नगर का एक भाग खुदवा डाला । जैन तथा जैनेतर साधुयो पर वह कर इत्यादि लगा कर वडा अत्याचार करता था । उसके अत्याचारो से तग श्राकर अधिकतर सावु देश छोड़कर चले गये । (२) उसके राजकाल मे एक वार सत्रह रात और दिन बरावर पानी वरसता रहा। गंगा और सोन में भयकर बाढ़ श्रा गई, जिसके फलस्वरूप पाटलिपुत्र वह गया, केवल थोडे से लोग तख्तो और नावो के सहारे अपनी जान बचा सके । (३) राजा कल्की पाडिवत् आचार्य के साथ वच गया और बाद मे उसने एक सुन्दर नगर बसाया। कुछ दिनो तक कल्की चुप बैठा रहा, पर बाद में उसके अत्याचारो का वेग और भी वढा । जैन साधुओं को, जिनमें पाडिवत् प्राचार्य भी थे, उसने षष्टमाश कर वसूल करने के लिए वडे-बडे कष्ट दिये ।, (४) इन्द्र ने, जिसे यहाँ दक्षिणाधिपति कहा है, साधुओ की रक्षा के लिए छियासी वर्ष उमर वाले कल्की को नष्ट कर दिया । (५) चतुर्मुख के बाद उसका पुत्र दत्त गद्दी पर बैठा ।
पहली बात पर विचार करने से यह भास होता है कि चतुर्मुख या कल्की नाम का एक अत्याचारी राजा तो था, परन्तु उनकी ऐतिहासिकता कितनी है, यह कहना कठिन है। जैन सिद्धान्त के अनुसार कल्की और उपकल्की दुसमा में वरावर होते आये है, हज़ार बरस में कल्की होता है और पाँच सौ वरस में उपकल्की (श्रावेग, मेसीयास ग्लाउवे इन इण्डियन उण्ड ईरान, पृ० १४० ) । लेकिन इन कल्कियो और उपकल्कियो का सम्वन्ध ऐतिहासिक न होकर कलियुग