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दादू और रहीम
मेरे हृदय हरि वसै दूजा नाहीं और।
कहो कहाँ ध राखिये नहीं आन कीं ठौर ॥ (निहकर्मी पतिव्रता अग, २१)
रहीम के दोहों में भी हम देखते है
रहिमन गली है साँकरो, जो ना ठहराहि ।
पु है तो हरि नहीं, हरि तो आपु नाहि ॥
अर्थात्- "हे रहीम, सकीर्ण है वह मार्ग, दो जनो का खडा होना वहाँ असम्भव है । आपा रहने से हरि नही रहता और हरि रहने से आपा नहीं ।"
उनके साथ इस प्रकार एकात्म होने से भजन, त्यजन सव एक हो जाता है । उनके साथ कोई भेद तो है नही । इमोलिए भजन करने पर भी और किसी दूसरे का भजन नहीं किया जाता । भजा जाय तो किसे और तजा जाय तो किर्म ? दादू ने इसी प्रश्न को और इसी समय को अगवन् सग्रह के विरह अग ( २१४ - २६७ ) में व्यक्त किया है। उनकी अडाना रागिणी का ११६वाँ गान इस प्रसग में स्मरण किया जा सकता हैभाई रे तव का कथिसि गियानां,
जब दूसर नाहीं श्रानाँ ।.
अर्थात्–“अरे भाई, जव कोई दूसरा है ही नही तो फिर क्या ज्ञान की बात छाँट रहा है ।"
रहीम की वाणी में भी इस भाव का दोहा है
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भर्जी तो काको भर्जी, तज तो काको थान,
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भजन तजन ते विलग है, तेहि रहीम तू जान ।
अर्थात् — “हे रहीम, अगर भजना ही चाहते हो तो किसे भजोगे और तजना ही चाहते हो तो किसे तजोगे । भजन और वजन के जो अतीत है, तुम उनको ही जानो ।"
और रहीम ने भी कहा है
मसार के साथ साधना का और विश्व के साथ व्यक्ति का कोई विरोध नही है । इस विश्व के समान ही हमारे भी जिन प्रकार आत्मा है उसी प्रकार देह भी है । इसीलिए दादू ने कहा है, "देह यदि ससार में रहे और अन्तर यदि भगवान् के पाम तो ऐसे भक्त को काल की ज्वाला, दु ख और त्रास कुछ भी व्याप नही सकते ।”
देह रहें संसार में, जीव राम के पास ।
दाहू कुछ व्यापे नहीं, काल झाल दुख त्रास ॥ ( विचार अग, २७ )
तन रहीम है कर्म वस, मन राखो हि श्रोर ।
जल में उलटी नाव ज्यो, खैचत गुन के जोर ॥
मन जव इस प्रकार भगवान् में भरपूर रहता है तब ससार उस पर कोई प्रभाव नही डाल सकता। उस समय सारिकता को हटाने के लिए किमी बनावटी आयोजन की जरूरत नही पडती । भगवद्भाव से भरे हुए चित्त में से सांसारिक वासना स्वय दूर हो जाती है।
दादू मेरे हृदय हरि वसै दूजा नाहीं और । कही कहाँ ध राखिए नहीं श्रान को ठौर ॥ ( निहकर्मी पतिव्रता अग, २४) अर्थात् -"दादू कहते है कि मेरे हृदय में एकमात्र हरि ही वास करते हैं और कोई दूसरा नही । और मैं भला किसको रक्खूँ यहाँ ? दूसरे के लिए जगह कहाँ हैं.
"
दूजा देखत जाइगा एक रहा भरिपूर । ( निहकर्मी पतिव्रता अग, २४) एक ही इस प्रकार परिपूर्ण होकर विराजमान है कि दूसरा उसे देखते ही हट जायगा ।