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हिन्दू-मुस्लिम-स
आध्यात्मिक पहलू
पंडित सुन्दरलाल
आदमी की जिन्दगी के हर सवाल को कई तरह से और कई पहलु से देखा जा सकता है। जितने अलग-अलग पहलू हम जिन्दगी के है, या हो सकते हैं, उतने ही तरह के सब सवालो के हो सकते हैं। मोटे तौर पर इन्सान की जिन्दगी के तीन पहलू हमें दिखाई देते हैं । एक तारीखी या इतिहामी पहलू । दूसरा समाजी, कल्चरल यानी आए दिन की जिन्दगी और रहन-सहन का पहलू और तीसरा श्राध्यात्मिक या रूहानी पहलू । जिस सवाल की हम इस लेख में चर्चा करेंगे उस का एक और चौथा सियासी यानी राजकाजी पहलू भी एक खास पहलू है । इन सब पहलुओ, खासकर आध्यात्मिक पहलू को सामने रखकर ही हम श्राजकल के हिन्दू-मुस्लिम- सवाल पर एक सरसरी निगाह डालना चाहते है ।
यूँ तो यह सवाल उस जमाने से चला आता है, जव से इस देश के अन्दर हिन्दू और मुसलमान दोनो धर्मों के मानने वाले साथ-साथ रहने लगे, पर वीसवी सदी ईस्वी के शुरू से इस सवाल का जो रूप बनता जा रहा है, वह एक दर्जे तक नया रूप है। 'प्रेमी-श्रभिनन्दन-प्रन्य' एक ऐसा ग्रन्थ है, जो मुमकिन है, हिन्दू-मुस्लिम सवाल के मौजूदा रूप के मिट जाने या हल हो जाने के बाद भी लोगो के हाथो में दिखाई दे और उन्हें अपनी और अपने देश की आगे की तरक्की का रास्ता दिखाता रहे। ऐसी मूरत में इस लेख के कुछ हिस्से का मोल सिर्फ इतिहासी मोल ही रह जायगा, लेकिन कुछ हिस्सा ऐसा भी होगा जो ज्यादा देर तक काम का सावित हो ।
इस सवाल का इतिहासी पहलू एक लम्बी चीज़ है । थोडे से में उसका निचोड यह है । देश में कई अलग-अलग मजहवी ख्यालो के लोग रहते थे। उनकी मानताओ, मजहवी उसूलो और रहन-सहन के तरीको में काफी फरक था । कोई निराकार के पूजने वाले, कोई साकार के । कोई मूर्तिपूजक, कोई मूर्ति पूजा को पाप समझने वाले । कोई ईश्वर को जगत का कर्ता मानने वाले और कोई किसी भी कर्त्ता के होने से इन्कार करने वाले । कोई मास खाने को अपने धर्म का जरूरी हिस्सा मानने वाले और कोई उसे पाप समझने वाले । कोई देवी के सामने हवन में मदिरा चढ़ाने वाले और कोई मदिरा छूने तक को गुनाह समझने वाले । वग़ैरह-वगैरह । लेकिन ये सब लोग किसी तरह एक गिरोह में गिन लिए जाते थे, जिसे हिन्दू कहा जाता था। थोडे से ईसाई और यहूदी भी देश के किसी-किसी कोने में थे, पर देश की ग्राम जिन्दगी पर उनका असर नहीं के वरावर था । ऐसी हालत में एक नया मजहव इस देश में आया, इस्लाम । इस नए धर्म के मानने वाले एक ईश्वर को मानते थे । जात-पात और छुआछूत, जो हिन्दू धर्म का एक खास हिस्सा बन चुकी थी, उनमें विल्कुल न थी । मूर्ति-पूजा को वे गुनाह समझते थे । वे एक निराकार के उपासक थे । उनमें मामूली ग्रादमियो र ईश्वर के बीच किसी पुरोहित की ज़रूरत न थी । श्रादमी -श्रादमी सव वरावर । लेकिन उनके धर्मं को जन्म देने वाले महापुरुष हजरत मुहम्मद अरव में जन्मे थे, हिन्दुस्तान में नही । उनकी खास मजहवी किताव क़ुरान रवी में लिखी हुई थी, मस्कृत या किमी हिन्दुस्तानी जवान में नही ।
हिन्दू-धर्म के साथ इस्लाम की थोडी-बहुत टक्कर होना कुदरती था । यह टक्कर कोई नई चीज नही थी । इस देश के इतिहास में इस से पहले पुराने द्राविड- धर्म और नए श्रार्य धर्म में कई हज़ार वरस तक टक्कर रह चुकी थी । हजारी वरस तक वेदो के मानने वाले श्रार्यं अपने वैदिक देवताओ जैसे मित्र, वरुण और इन्द्र की पूजा को मुख्य समझते थे । यहाँ के अमली वाशिन्दे अपने पुराने देवताओ, शिव और चतुर्भुज विष्णु की पूजा को ही जारी रखना चाहते थे । वहसें हुईं, गिरोह के गिरोह मिटा डाले गए । आखीर में कई हज़ार वरम को टक्करो के वाद जव दोनी धाराएँ गंगा थोर जमुना की तरह एक दूसरे में मिल गई तो आज यह पता लगाना भी मुश्किल है कि इस मिली-जुली जीवन-धारा का कौन सा कण आर्य है और कौन सा द्राविड । मित्र, वरुण और इन्द्र के मन्दिर हिन्दुस्तान भर में आज ढूंढे से भी मिलने मुश्किल है,
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