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भारत में समाचार-पत्र और स्वाधीनता
१८७ भूल से दवा पडा रह गया था। इसलिए सिविल सर्विस से हटा दिये गये थे। ये अद्वितीय वक्ता थे और अपने भाषणो और लेखो से इन्होने देश की बडी सेवा की थी। एक वार कलकत्ता हाईकोर्ट में जस्टिस नौरिस ने हाईकोर्ट में शालग्राम शिला लाने की आज्ञा दी थी और काशी के पडित राममिश्र शास्त्री ने इसके समर्थन में व्यवस्था भी दे दी थी। परन्तु सुरेन्द्र वावू ने इसका विरोध किया और वदनाम अंगरेज़ जज जेफरीज़ से नौरिस की तुलना की। इस पर न्यायालय का अपमान करने के अपराध में इन्हें जेल भी जाना पडा। पर नौरिस की आज्ञा न चली। - 'अमृतवाजारपत्रिका' का कुछ अश इन दिनो बंगला में और कुछ अंगरेजी में निकलता था और इसे वन्द करना ही लिटन का लक्ष्य था। परन्तु पत्रिका के सम्पादक गिशिरकुमार घोप ने सारी पत्रिका अंगरेजी में ही कर दी और तवसे उसका बंगला अश सदा के लिए हट गया। लार्ड लिटन के कान इस प्रकार जव शिशिर वाबू ने काट लिये तव उनका मनोभाव कैसा हुअा होगा, इसकी कल्पना ही की जा सकती है। १४ मार्च १८७८ को लिटन का जो ऐक्ट पास हुया था, उममें सरकार को यह अधिकार दिया गया था कि वह देशी भाषा के किसी पत्र के मुद्रक और प्रकाशक से यह प्रतिज्ञा करा सकती है कि कोई ऐसा विपय न प्रकाशित किया जायगा, जिससे राजद्रोह फैल सकता हो। जो मुद्रकप्रकाशक इसके विरुद्ध आचरण करता, उसे पहले तो चेतावनी दी जाती और वाद में उसका प्रेस छीन लिया जाता। इससे बचने को लोग अपने पत्र की कापी सेन्सर करने के लिए दे सकते.थे । शिशिर वावू ने उसके बदले २१ मार्च १८७८ मे पत्रिकासँगरेज़ी में करदी और लार्ड लिटन अपना-सा मुंह लेकर रह गये। रिपन ने आकर इस ऐक्ट को रद्द किया। १९८१ मे पूने का 'केसरी' निकला, जो लो० तिलक के कारण भारत के देशभाषा के पत्रो में सबसे प्रसिद्ध हुआ।
बङ्ग-भङ्ग का प्रभाव भारतीय पत्रो को सख्या दिन दूनी रात चौगुनी बढने लगी और १९०५ में वग-भग के आन्दोलन से तो बहुत अधिक हो गई। इस आन्दोलन के दो रूप थे, एक हिंसात्मक और दूसरा अहिंसात्मक । खुल्लमखुल्ला हिंसा का प्रचार करने वाला पत्र क्रान्तिवादियो ने 'युगान्तर' नाम से बंगला मे निकाला था। इसके दमन के लिए १६०८ में हिंसा को उत्तेजन देने के सम्बन्ध का (Incitement to Violence) ऐक्ट बना। इसके साथ ही अंगरेजी का दैनिक पत्र 'वन्देमातरम्' भी इसी कानून से वन्द किया गया, यद्यपि इसकी नीति हिंसावाद की नही थी। इतने से ही सरकार को सन्तोप न हुआ और उसने १९१० में प्रेस ऐक्ट' बनाया, जो इतना व्यापक था कि 'कानेड' के मामले में कलकत्ता हाईकोर्ट के चीफ जस्टिस सर लारेन्स जेनकिन्स ने कहा कि अच्छे-से-अच्या साहित्य प्रेस-ऐक्ट के अनुसार दूषित ठहर सकता है। यह प्रेस-ऐक्ट १९१६ में रद्द कर दिया गया, पर १९१६ में पजाव मे जो घटनाएं हुई, उन पर विचार करके सरकार ने १९२० से उसे फिर जारी कर दिया और आज भी वह देशी पत्रो की छाती पर मूंग दल रहा है। इसके पहले पीनल कोड वा ताजीरात हिन्द में दो धाराएँ और वढाई गई, एक १२४अ और दूसरी १५३अ । पहली के अनुसार राजद्रोह-प्रचारका अभियोग सम्पादको और लेखको पर लगने लगा और दूसरी के अनुसार जाति-द्वेषप्रचार के मामले उन पर चलाये जाने लगे। १८९७ में लोकमान्य तिलक पर राजद्रोह-प्रचार का मामला चलाया गया था। उसमें बम्बई हाईकोर्ट के दौरा-जज स्ट्रेची ने उक्त धारा में 'disaffection' शब्द का अर्थ 'want of affection' किया था। ऐसी अवस्था में उन्हें डेढ साल की सजा देना जस्टिस स्ट्रेची के लिए ठीक ही था। १९०८ में उन्हें छ वर्ष का दड वैसे ही अभियोग पर जस्टिस दावर ने दिया था, जो १८९७ वाले मामले में उनके बैरिस्टर थे। युद्धकाल में और विशेषकर गत महासमर में तो पत्रो की कोई स्वाधीनता ही नही थी और आज भी नही के बरावर ही है।
उन्नीसवी शताब्दी के उत्तरार्द्ध मे हिन्दी के जो पत्र जहाँ से और जिसके सम्पादकत्व मे निकले, उनका सक्षिप्त - विवरण नीचे दिया जाता है। १८७१ में 'अल्मोडा अखबार', १८७२ मे बिहारबन्धु, १८७४ में 'सदादर्श' (दिल्ली, सम्पादक लाला श्रीनिवासदास),१८७६ में भारतबन्धु' (अलीगढ, सम्पादक तोताराम वर्मा), १८७७ में 'मित्रविलास'