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प्रेमी-अभिनदन-प्रय
इस तरह देशो भाषाओ मे पुस्तके प्रकाशित होने के बाद यह स्वाभाविक था कि देश मे ममाचार-पत्रों का प्रकाशन भी प्रारम्भ हो और वह हुआ भी।।
हिन्दुस्तान में सबसे पहला समाचार पत्र अग्रेजी में निकला। उनका नाम पा 'वेगाल-गजेट' (Bengal Gazette)। इसका प्रथम अक २६ जनवरी सन् १७८० के दिन निकला था। यह माप्ताहिक था। इसके सम्पादक मि० हिकी (Hickey) थे। यह पत्र प्राय इसके सम्पादक के नाम से ही पहचाना जाता था।
.इसके बाद वगाल में 'वगाल हरकर' इत्यादि पत्र प्रकाशित हुए।
इसी तरह वम्बई में सन् १७६० मे गैजेट' (Gazette) और सन् १७९१ में 'कोरियर' (Courner) प्रकाशित हुए।
इन्ही इग्लिग पत्रो को देखकर मन् १८१८ मे बंगला भाषा में 'मनाचान्दन',नन् १८२० मैं गुजराती भाषा मे 'मुम्बई समाचार' सन् १८२६ में हिन्दी भाषा में 'उदन्त मार्तड', और नन् १८३२ मे मग भाषा में 'दर्पण' पत्र प्रकागित हुए।
मरकारने जव शिक्षा का प्रारम्भ क्यिा तव शिक्षोपयोगी, भाषा, गणित, इतिहास और भूगोल इत्यादि विषयों को पुस्तकें भी प्रकाशित होने लगी। ___ इस तरह छयो पुस्तको और पत्रो का प्रचार देखकर पुराण-गन्यी चौंक उठे। उन्होनें छपी पुस्तको और पत्रों का विरोध प्रारम्भ किया। इस विरोध का कारण मम्भवत यह था कि इन छापे के प्राव प्रचारक मिशनरी थे। इन लिए उन्हें छपे कागजो में ईसाई-धर्म के प्रचार को बू पाने नगो। श्रीयुत गोविन्द नागयण माडगांवकर ने अपनी पुस्तक 'मुम्बई वर्णन', जो सन् १८६३ में प्रकाशित हुई थी, के प० २४८ पर लिखा है।
हमारे कुछ भोले व नैष्ठिक ब्राह्मण छपे काग्रज का स्पर्श करते डरते थे और प्राज भी (सन् १८६३ में भी) डरते है । दम्बई में और बम्बई से बाहर भी ऐसे बहुन से लोग है, जो छपी हुई पुस्तक को पढना तो दूर रहा, इपे काराज का स्पर्श तक नहीं करते है।
लोगो को कल्पना यो कि म्याही मे चरवी का प्रयोग किया जाता है, जो वजित है। इसलिए उन स्याही से छपी हुई पुस्तकें अमगलकारी है।
छापना जव अनिवार्य समझा जाने लगा तव कुछ लोगों ने न्याही में घी का उपयोग करने को हिमायत की। गत शताब्दों के अन्त में पत्रो में 'तूपाचे (घो का) गुरुचरित्र' हैडिंग वाले विज्ञापन प्रकाशित होते थे, जिनमे यह बात प्रमाणित होती है कि लोग सचमुच हो चरवी को जगह स्याही में घी का उपयोग करते थे। "गुरुचरित्र" मराठी भाषा का एक धार्मिक ग्रन्य है। उसका चरवी को स्याही में छपना गुनाह माना गया। इसीलिए वह घी की स्याही मे छापा गया।
मुना जाता है कि जैन-लोगो मे भी ऐसी ही भावना थी। कलकत्ते में करीव वीस वरस पहले प० पन्नालाल जी वाकलीवाल ने एक जन-निद्धान्त-प्रकाशिनी' सस्था कायम की थी। उसने अपना एक प्रेस प्रारम्भ किया । उस प्रेस में कही भी चरवो या दूसरो ऐमी चीज़ो का उपयोग नहीं किया जाता था, जो जैन-दृष्टि से अशुद्ध मानी जाती हो । वे उन चीज़ो की जगह किसी वनस्पति से बनी चीज काम में लाते थे और ग्रन्थ छापते थे।
भारतियो के हृदयों में भी स्वतन्त्र रूप से छापाखाने चलाने की इच्छा का उत्पन्न होना स्वाभाविक था। उनको यह इच्छा पूरी भी हुई। सर्वप्रथम गणपत कृष्णाजी ने छापाखाना प्रारम्भ किया। ये पहले एक अमेरिकन मिशनरी प्रेस में प्रेममन थे। वही इन्होने मुद्रणालय से सम्बन्ध रखने वाली सारी बातें सीखी थी। इनके सम्बन्ध में गो० ना० माडगांवकर ने अपनी पुस्तक 'मुम्बई वर्णन' में लिखा है
" अमेरिकन मिशनरियो ने सन् १८१३ में छापाखाना शुरू किया। लिथो प्रेस में ईसाई-धर्म से सम्बन्ध स्तने वाली अनेक पुस्तकें छपी। इन्हें देखकर परलोक-गत भडारी जाति के 'गणपत कृष्णाजी' के मन में (सन्