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हिन्दी कविता के कला-मण्डप
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आठ सगण (लघु-लघु-गुरु) के इम 'दुर्मिल' सवैया का गण विचार कीजिए । कवि ने कितनी स्वतन्त्रता ग्रहण की है, परन्तु सौष्ठव वढा ही है ।
(२) पिंगलकार यह भी विधान करने है कि छन्द ४ चरणो का होता है, (जैसे वह कोई चतुष्पद 'जन्तु' हो।) परन्तु इस रूढि को भी कवियो ने कई वार गांठ वाँधकर पौराणिको के लिए घर दिया । अव तो दो चरणो और तीन चरणो की रुचि प्राय देखी जाती है । कभी-कभी अन्त्यानुप्रास केवल पहले, दूसरे और चौथे चरण काही मिलाते है। जैसे(क) दो चरणो का अन्त्यानुप्रास
तिमिर में वुझ खो रहे विद्युत भरे निश्वास मेरे निस्व होगे प्राण मेरे शून्य उर होगा सवेरे ।
('दीपशिखा' महादेवी) (ख) तीन चरणो का अन्त्यानुप्रास
कुटी खोल भीतर जाता हूँ। तो वैसा ही रह जाता हूँ। तुझको यह कहते पाता हूँ!
('झकार' गुप्त जी) (ग) प्रथम, द्वितीय तया चतुर्थ चरणो का अन्त्यानुप्रास
रज में शूलों का मृदु चुम्बन , नभ में मेघो का धामन्त्रण, आज प्रलय का सिन्धु कर रहामेरी कम्पन का अभिनन्दन !
('दीपशिखा' महादेवी)
(३) कवि-प्रतिभा ने दो छन्दो के सयोग से नये छन्द की रचना करने की स्वतन्त्रता का भी उपयोग किया है । सवसे पहले सम्भवत 'अष्टछाप' के कवि नन्ददास ने इस दिशा में पदनिक्षेप किया था। उन्होने 'रोला' और 'दोहा' के सम्मिश्रण और अन्त में एक १० मात्रीय चरण और जोडकर छन्द को सवाया सुन्दर कर दिया। वर्ण-सकर होकर भी इस सन्तति ने अपने शील द्वारा हिन्दीभाषी जनता को इतना मुग्ध किया कि इस शताब्दी के कविवर सत्यनारायण ने भी वही मार्ग पकडा। एक उदाहरण लें
नन्ददास
जो मुख नाहिंन हतो, कहो किन माखन खायो, पायन विन गोसग कहो बन-वन को धायो, प्रांखिन में अजन दयो गोवर्धन लयो हाथ , नन्द जसोदा पूत है कुंवर कान्ह व्रजनाथ ।
सखा सुन स्याम के।
('भंवर गीत')