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समालोचना और हिन्दी में उसका विकास
श्री विनयमोहन शर्मा एम० ए०
साहित्य के यथार्थं दर्शन का नाम समालोचना है । वह स्वय 'साहित्य' है, जो श्रालोचक की वृद्धि, संस्कृति हृदय-वृत्ति से निर्मित होता है । बुद्धि में आलोचक की अध्ययन सीमा, सस्कृति में उसका विषयग्राही दृष्टिकोण और हृदय - वृत्ति में विषय के साथ समरस होने की ललक झलकती है। साहित्य की वर्तमान सर्वागीण अवस्था के साथ मूत-कालीन सस्कृति-सस्कार की श्रृंखला जुडी रहती है । अत साहित्य को समझने के लिए समाज, धर्म, राजनीति और साहित्य की तत्कालीन अवस्था तथा 'रूढियो' से परिचित होना आवश्यक है । यद्यपि मानव-भावनाओ -विकारो युग का हस्तक्षेप नही होता, परन्तु विचारो और परम्परानो में परिवर्तन का क्रम सदा जारी रहता है । इन परिवर्तनतत्त्वो के अध्ययन और विश्लेषण के प्रभाव में यह निर्णय देना कठिन होता है कि आलोच्य साहित्य अनुगामी है, अथवा पुरोगामी । अनुगामी से मेरा आशय उस साहित्य से हैं, जो समय के साथ है और भूत-कालीन साहित्य का ऋणी है । 'पुरोगामी' से भावी युग का सकेत करने वाले सजग प्रेरणामय साहित्य का अर्थ समझना चाहिए । इस प्रकार का साहित्य अनुकरण करता नही, कराता है ।
साहित्य-समालोचना के दो भाग होते हैं, एक 'शास्त्र' और दूसरा 'परीक्षण' । 'शास्त्र' श्रालोचना के सिद्धान्तो का निर्धारण और परीक्षण में 'साहित्य' का उन सिद्धान्तो के अनुसार या अन्य किसी प्रकार से मूल्याकन होता है । समय-समय पर मूल्याकन के माप-दड मे परिवर्तन होता रहता है । 'शास्त्र' में साहित्य के विभिन्न गोकाव्य, नाटक, उपन्यास, कहानी, निवन्ध आदि के रचनातन्त्र - नियमो का वर्णन रहता है। ये नियम प्रतिभाशाली महान् साहित्यकारो की कृतियो के सूक्ष्म परिशीलन के पश्चात् उनकी अभिव्यजनाओ आदि की अधिक समानता पर आधारित और निर्धारित होते है । 'परीक्षण' में साहित्य की परख होती है, जो साहित्य-शास्त्र के नियमो को मापदड मानकर की जाती है और इस मापदढ की कुछ या सर्वथा उपेक्षा करके भी की जाती है । शास्त्रीय मापद को कितने अश में ग्रहण किया जाय और कितने अश में नही, इस प्रश्न को लेकर यूरोप में साहित्यालोचना की अनेक प्रणालियों का जन्म हुआ और होता जा रहा है। हिन्दी साहित्य की आधुनिक परीक्षण प्रणालियों पर पाश्चात्य प्रणालियो का प्रभाव - प्राधान्य होने से यहाँ उनकी चर्चा अप्रासंगिक न होगी ।
यूरोप में अरस्तू (Aristotle), होरेस (Horace) और बाइलू (Boileau) साहित्य - शास्त्र के आचार्य माने जाते है । "इन्होने साहित्य की व्याख्या की और महाकाव्य, ट्रेजेडी और दुखान्त नाटको के नियम बनाये ।" वर्षों तक साहित्य जगत् में इनके नियमो ने साहित्य सर्जन और उसकी समीक्षा में पथ प्रदर्शक का काम किया, पर उनमें गीतिकाव्य और रोमाचकारी रचनाओ (Romantic works) के नियमो का प्रभाव था । अत समय की प्रगति में वे शास्त्र साहित्य के कलात्मक पक्ष का निर्देश करने में असमर्थ हो गये । नाटककारो - शेक्सपियर आदि ने - शास्त्रियो को घता वताना प्रारम्भ कर दिया । इसके परिणामस्वरूप कुछ रूढिवादी आलोचको ने शेक्सपियर की शास्त्र- नियम-भगता की उपेक्षा तो नही की, पर यह कहकर क्षमा श्रवश्य कर दिया कि "वह झक्की —— श्रव्यवस्थित प्रतिभावान् है ।” रिनेसा के युग ने सोलहवी शताब्दी में अन्य रूढ़ियो के साथ समालोचना के शास्त्रीय बन्धनो को भी शिथिल कर डाला। उसके स्थान पर व्यक्तिगत रुचि को थोडा प्रश्रय दिया गया । परन्तु अठारहवी शताब्दी में इगलैंड मे ‘क्लासिकल-युग' ने पुन अरस्तू श्रोर होरेस को जीवित कर दिया। ड्राइडन, एडीसन, जॉनसन आदि ने उनके शास्त्रीय नियमो की कसौटी पर साहित्य को कसना प्रारम्भ कर दिया। बॉसवेल ने जब एक बार डा० जानसन से एक पद्य पर अपनी राय देते हुए कहा, "मेरी समझ मे यह बहुत सुन्दर है ।" तब डाक्टर ने झल्ला कर उत्तर दिया,