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प्रेमी - अभिनदन- प्रथ
मोल्टन ने व्याख्यात्मक आलोचना को शेष तीन प्रकार की आलोचनाओ का आधार माना है । विचेस्टर ने अपनी 'Some Principles of Literary criticism' में आलोचनाओ के विभिन्न भेदो की मीमासा न कर आलोचना के लिए तीन बातें आवश्यक बतलाई है । आपके मत से आलोचक को (१) साहित्य की ऐतिहासिक पृष्ठ भूमि से अवगत हो जाना चाहिए, क्योकि कोई साहित्य अपने समय से सर्वथा अप्रभावित नही रह सकता । (२) साहित्यकार के व्यक्तिगत जीवन से भिज्ञ हो जाना चाहिए । इससे साहित्य को समझना आसान हो जाता है । पर इसी तत्त्व की ओर विशेष ध्यान देने से आलोचना का तोल विगड सकता है और (३) कृति की साहित्यिक विशेषताओ की उद्भावना की जानी चाहिए । विचेस्टर ने अन्तिम तत्त्व पर ही विशेष जोर दिया है । साहित्यिक विशेषताओ के अन्तर्गत कल्पना, भावना, भाषा आदि का विचार आता है। इस पद्धति को साहित्य की 'वैज्ञानिक परीक्षा' कहा जा सकता है, जिसमें शास्त्रीय नियमो के न रहते हुए भी कृति की परख 'नियम-रहित' नही है । नीचे वृक्ष द्वारा पाश्चात्य आलोचना की धाराओ का स्पष्टीकरण किया जाता है
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समालोचना
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शास्त्र
शास्त्रीय
परीक्षण 1
अशास्त्रीय
प्रभाववादी
सौन्दर्यवादी
प्रशसावादी
विज्ञानवादी
मार्क्सवादी
हिन्दी मे आलोचना के परीक्षण --प्रग के दर्शन होने के पूर्व शास्त्र-ग्रन्थो का निर्माण संस्कृत शास्त्र-प्रन्यो के आधार पर प्रारम्भ हो गया था। संस्कृत में आलोचना शास्त्र के पाँच स्कूल थे १ - रस सम्प्रदाय ( स्कूल ) - यह सम्प्रदाय बहुत पुराना है । भरत के नाट्य शास्त्र में इसकी चर्चा है। हमारे यहाँ आचार्यों ने साहित्य की आत्मा 'रस' में देखी थी। ‘आनन्द’की परम अनुभूति का नाम ही 'रस' है । उसकी उत्पत्ति के विषय मे भरत का कहना है
“ विभावानुभावव्यभिचारि सयोगाद्रसनिष्पत्ति ।"
रूपक में 'रस' की सृष्टि दर्शको या पाठक मे होती है या पात्र या नाटक ( काव्य ) में, इस प्रश्न को लेकर भरत के बाद में होने वाले आचार्यों में काफी मतभेद रहा । पर अधिक मान्य मत यही है कि जब दर्शक या पाठक का मन पात्र या 'काव्य' के साथ 'समरस' हो जाता है -- ( जब साधारणीकरण की अवस्था उत्पन्न हो जाती है) तभी "रस" की निष्पत्ति होती है । रस की स्थिति वास्तव में दर्शक या पाठक के मन मे ही होती है। नाटक देखने-पढने से उसके मन के सोये हुए 'सस्कार' जाग उठते है और वह 'कृति' में अपना भान भूलकर श्रानन्द-विभोर हो जाता है ।
(२) रस सम्प्रदाय के साथ-साथ अलकार सम्प्रदाय का भी जन्म हुआ प्रतीत होता है । भामह को इस स्कूल का प्रथम ज्ञात आचार्य कहा जाता है। उनके बाद दडी, रुद्रटक, और उद्भट का नाम श्राता है । इन आचार्यो ने "अलकाराएव काव्ये प्रधानमिति प्राच्याना मत " कह कर काव्य में अलकारो को ही सब कुछ माना है। उक्त आचार्यो ने शव्द और अर्यालकारो की वावन सख्या तक व्याख्या की है, पर यह संख्या क्रमश वढती गई ।,
(३) रीति-सम्प्रदाय में गुण (माधुर्य, ओज, और प्रसाद आदि) और रीति युक्त रचना को श्रेष्ठ माना गया है । आचार्य वामन ने गुणो की महत्ता में कहा है कि गुण-रहित काव्य मनोरजक नही हो सकता । गुण ही काव्य की शोभा है । वामन ने शब्द के दस और अर्थ के भी इतने ही गुण बतलाये हैं ।