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प्रेमी-अभिनदन-प्रथ
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रख मृदुल हथेली पर धानन सुख से मूंदें वे मलिन नयन शैलो से उतरी प्राती नीरद निवासिनी परियां बजती मधुर स्वरों से जिनके चरणो की मजरियाँ ! ग्रामो से पाती, मुग्धाएँ कोकिल-कठी प्रिय लतिकाएँ क्षण भर में तुम कर देते इस पृथिवी को नन्दन ! जहाँ अप्सराएं करती हैं छाया में संचारण ! - फानो में वजते है ककण
आंखों में करता रूप रमण ! फूले रहते है मदा फूल भौरे करते निशि-दिन गुजन !
(२) मेरे हिम-प्रदेश के वासी, जन्म-भूमि तज, दूर देश में रहने लगा प्रवासी मावन आया, दुख से मेरे, उमडी अतुल उदासी वरसी झर-झर झर अश्रुधार ! शैलों पर छाया अन्धकार ! लख उत्तर की दिशा जल-भरे मेघ मनोहर उडते पल-पल में चपला चमकाते, शैल-शैल पर रुकते पीछे को लखते बार-बार । बरसाते. रह-रह विन्दु-धार
। मै घायल पर-हीन विहग-सा किसी विजन में मन मारे किसी तरह रहता था रो-रो फर निज जीवन धारे उर में उठती बातें अनेक मै कह पाता था पर न एक एक अँधेरी रात, बरसते थे जब मेघ गरजते जाग उठा था मै शय्या पर दुख से रोते-रोते,करता निज जननी का चिन्तन निज मातृभूमि का प्रेम-स्मरण उसी समय तम के भीतर से, मेरे घर के भीतर आकर लगा गूंजने धीरे एक मधुर परिचित स्वर, 'काफल पाक्कू', 'काफल पाक्कू स्वप्न न था वह, क्योंकि खोलकर वातायन मै बाहरदेख रहाथा, बार-वार सुनता वह ही परिचित स्वर । उर में उठता था हर्ष-ज्वार नयनों में थी आनन्द-धार
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