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ग्रह
मङ्गल
बुध
शुक्र.
गुरु वा बृहस्पति साक्षात् वाचस्पति स्वरूप -- शिक्षा कमिशन गुरु - हिन्दी के परम शत्रु-हटर साहव मनमानी व्यवस्था देने वाले काशी के पडितो मुखिया जो कोई हो
शनैश्चर
प्रेमी-अभिनदन-प्रथ
राहु
केतु
नाम ग्रह
महा अमगल की खान सकलगुणनिधान मेडराज विविध राजनीति विभूपित परम निर्दूषित सैयद अहमद खाँ बहादुर
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श्रायुध खुशामद स्वार्थ साधन
उर्दू की जड पुष्ट करने वाली उक्ति युक्ति काटछाँट
चारो वेद अठारो पुराण सारा कोरान सारे साएन्स तथा अड वड सड
अनर्गल विद्या
सर ग्रेड डफ मद्रास के गवर्नर जो सेलम के धीग घोगा निरपराधी रईसो पर जन्म भर के लिए आए और उन्हें काले पानी के सप्त द्वीप दिखाए महामान्य रियर्स टाम्सन ल० ग० बगाल टाम्सन के सहयोगी महा ऐंग्लो इडियन
अन्याय-अविद्या - जलन-कुढन
इल्वर्ट विल में विरोध के हेतु पायोनियर इगलिश मैन आदि अँगरेजी अखबार
ऐसी रचनाएँ श्राज के कार्टूनो का काम करती प्रतीत होती है । दूसरी शैली है नाटकीय सवादशीलता । मौज में लिखे गये इन निबन्धो में लेखक जैसे दो व्यक्तियो की उपस्थिति की कल्पना कर लेता है। कही कही इन दो व्यक्तियो में एक तो लेखक और दूसरा पाठक माना जा सकता है। कही कही तो इन दोनो का पृथकत्व वह ऐसे शब्दो को देकर प्रकट कर देता है जैसे कि "आप कहेंगे", कही केवल वर्णनशैली से ही यह अन्तर प्रकट होता है । 'पञ्च के पञ्च सरपञ्च' में ऐसी ही शैली मे दो कल्पितपात्र हैं ।
"नो अलबेले यहाँ अकेले बैठा क्या मक्खियाँ मार रहा है जरा मेले-ठेले की भी होश रक्खा कर, चल देख नावें मेला है झमेला है। शिवकोटी का मेला है कुछ नशापानी न किया हो तो ले यह एक बोतल रम श्राँख मीच ढाल जा, वाह गुरु क्यों न अब बन गया सब बहार नजर पडा विना इसके कहाँ दिल लगी, देख सम्हला रह कहीं पाँव लडखडाकर कीचडो में न फिसल पडे ।"
इन सबके साथ यह पत्रिका चुटकलो, प्रद्भुत शब्द सयोजनो, अनोखी व्याख्याश्रो, चुभती परिहासमयी परिभाषाओ, ज्ञान और चुहल के सक्षिप्त सवादो, गद्य-पद्य के चुटीले परिहासो - पैरोडियो से युक्त मिलेगी । क्रमश प्रकाशित होने वाले उपन्यास तथा नाटक भी प्राय नियमत रहते थे । इस प्रकार विनोद हास्य- परिहास के क्षेत्र में तो इस युग के इन पत्रो से आज के पत्रकार भी कुछ सीख सकते हैं ।
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इस काल की सम्पादकीय नीति विशेषत 'हिन्दी- प्रदीप' की बहुत ही श्लाघ्य मानी जानी चाहिए। सम्पादक ने सम्पादकीय ईमानदारी से कही हाथ नही धोया । सत्य को डके की चोट पर कहा है, पर विपक्षी के प्रति भी घृणा का भाव प्रकट नही किया, दुख भलेही प्रकट किया हो। पत्रो में उस समय भारतीय महत्त्वाकाक्षा और प्रगति का विरोधी मुख्यत 'पायोनियर' था। एक बार नही, अनेक बार उसका उल्लेख हुआ है, पर कही उसमें रोष अथवा घृणा नही । केवल एक आलोचनादृष्टि अथवा साधारण तथ्य कथन मिलेगा । पुरुषो में जन हित विरोधी राजा शिवप्रसाद 'सितारे हिन्द' थे । इनका भी उल्लेख कई स्थानो पर कई प्रकार से हुआ है । यहाँ भी परिहास और फब्तियाँ तथा आलोचना तो मिलेंगी, पर मालिन्य अथवा द्वेष नही दीखेगा । 'किम्वदन्ती' शीर्षक से १८८३ जून के भक में यह टिप्पणी है