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प्रेमी-अभिनदन-प्रथ ११४
किन्तु कॉलेज की यह भाषा-सम्बन्धी व्यवस्था कुछ वर्षों के बाद न चल सकी। इस समय तक अंगरेजी राज्य का विस्तार पूर्ण रूप से हिन्दी प्रदेश तक हो चुका था। फलत कॉलेज की भाषा-सम्बन्धी नीति में भी परिवर्तन होना अनिवार्य था। शासन के सुचारु रूप से चलने के लिए अधिकारियो को इधर ध्यान देना ही पडा। कॉलेज के २५ जुलाई, १८१५ ई० के वार्षिकोत्सव के दिन ऑन० एन० बी० एडमॉन्सटन, ऐक्टिग विजिटर, ने अध्यापको तथा अन्य उपस्थित व्यक्तियो का ध्यान इस ओर आकर्षित किया था। तत्कालीन पश्चिम प्रदेश से आने वाले भारतीय सैनिक अधिकाश में व्रजभाषा अथवा हिन्दी (आधुनिक अर्थ मे) भाषा का प्रयोग करते थे। इसलिए १८१५ ई० के बाद कॉलेज मे ब्रजभाषा की ओर अधिक ध्यान दिया जाने लगा, किन्तु इससे व्रजभापा अथवा हिन्दी गद्य के नये ग्रन्थो का निर्माण न हो सका और साथ ही कॉलेज मे हिन्दुस्तानी की प्रधानता बनी रही। यह व्यवस्था हिन्दुस्तानी विभाग के अध्यक्ष जे० डब्ल्यू. टेलर के समय तक विद्यमान थी।
२३ मई, १८२३ ई० के सरकारी आज्ञापत्र के अनुसार टेलर ने कॉलेज के कार्य से अवकाश गहण किया, क्योकि उस समय वे लेफ्टिनेंट कर्नल हो गये थे और सैनिक कार्य से उन्हें छुट्टी नही मिल पाती थी। इसलिए सपरिषद् गवर्नर जनरल ने उसी आज्ञापत्र के अनुसार कैप्टेन (वाद को मेजर) विलियम प्राइस को हिन्दुस्तानी विभाग का अध्यक्ष नियुक्त किया। विलियम प्राइस महोदय का सम्बन्ध नेटिव इन्फैट्री के बीसवे रेजीमेंट से था। १८१५ ई० से (उस समय वे केवल लेफ्टिनेट थे) अब तक वे व्रजभाषा, बंगला और सस्कृत के सहायक अध्यापक और हिन्दुस्तानी, फारसी आदि भाषाओ के परीक्षक की हैसियत से कॉलेज में कार्य कर रहे थे।
जहाँ तक हिन्दी (आधुनिक अर्थ में) से सम्बन्ध है विलियम प्राइस का विशेष महत्त्व है, क्योकि इन्ही के समय में कॉलेज में हिन्दुस्तानी के स्थान पर हिन्दी का अध्ययन हुआ। कॉलेज के पत्रो मे 'हिन्दी' शब्द का प्राधुनिक अर्थ में प्रयोग प्रधानत प्राइस के समय (१८२४-२५ ई० के लगभग) से ही मिलता है। हिन्दुस्तानी विभाग भी अव केवल हिन्दी विभाग अथवा हिन्दी-हिन्दुस्तानी विभाग और प्राइस, हिन्दी प्रोफेसर अथवा हिन्दी-हिन्दुस्तानी प्रोफेसर कहलाये जाने लगे थे।
विलियम प्राइस के अध्यक्ष होने के बाद ही २४ सितम्बर, १८२४ ई० को कॉलेज कौंसिल के मन्त्री रडेल ने सरकारी मन्त्री सी० लशिंगटन को एक पत्र लिखा, जिसमें उन्होने निम्नलिखित विचार प्रकट किये
"हिन्दुस्तानी, जिस रूप में कॉलेज में पढ़ाई जाती है और जिसे उर्दू, दिल्ली जबान प्रादि या दिल्ली-दरबार की भाषा के नामो से पुकारा जाता है, समस्त भारतवर्ष में उच्च श्रेणी के देशी लोगो, विशेष रूप से मुसलमानो, द्वारा बोलचाल की भाषा के रूप में प्रयुक्त होती है। लेकिन क्योकि मुरालो ने इसे जन्म दिया था, इसलिए इसकी मूल स्रोत अरवी, फारसी तथा अन्य उत्तर-पश्चिमी भाषाएँ है। अधिकाश हिन्दू अब भी उसे एक विदेशी भाषा समझते है ।
"फारसी और अरबी से घनिष्ट सम्बन्ध होने के कारण यह स्पष्ट है कि प्राय प्रत्येक विद्यार्थी कॉलेज में विद्याध्ययन की अवधि कम करने की दृष्टि से फारसी और हिन्दुस्तानी भाषाएँ ले लेते है । फारसी के साधारण ज्ञान से वे शीघ्र ही हिन्दुस्तानी में आवश्यक दक्षता प्राप्त करने योग्य हो जाते है। किन्तु भारत की कम-से-कम तीन-चौथाई जनता के लिए उनको अरबी-फारसी शब्दावली उतनी ही दुरुह सिद्ध होती है जितनी स्वय उनके लिए सस्कृत, जो समस्त हिन्दू वोलियों की जननी है।
___साथ ही यह भी कहा जा सकता है कि सस्कृत का एक विद्वान् हिन्दुओं में प्रचलित विभिन्न बोलियो के प्रत्येक शब्द की उत्पत्ति मूल संस्कृत स्रोत से सिद्ध कर सकता है। बंगला और उडिया लिपियो के अतिरिक्त उनकी लिपि भी नागरी है। व्याकरण के सिद्धान्त (शब्दो के रूप प्रादि) भी बहुत-कुछ समान है। अन्य भाषाम्रो का अध्ययन करने वाले व्यक्ति को अपेक्षा सस्कृत का साधारण ज्ञान-प्राप्त व्यक्ति इन भाषाम्रो पर अधिक अधिकार प्राप्त कर सकता है।
x 'देखिए, 'एशियाटिक जर्नल', १८१६, में 'कॉलेज प्रॉव फोर्ट विलियम' शीर्षक विवरण ।