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प्रेमी-अभिनदन-प्रथ है। इस पर भी प्राचीन और सञ्चित प्रान्तीय प्रवृत्तियों आदि ने इन परिवर्तनो को और भी वढा कर हिन्दी भाषा को अनन्त रूप प्रदान किये है। किन्तु इन विभिन्न रूपो का व्याकरण अपरिवर्तित रहा है। हिन्दी प्रधानत रही एक ही भाषा है। क्लिष्ट से क्लिष्ट उर्दू और सरल से सरल भाषा का विन्यास लगभग एक-सा है। उर्दू और भाषा के क्रमश 'का', 'की' और 'को', 'के 'की' सम्बन्ध कारक चिन्हों में कोई बहुत अधिक अन्तर नहीं है । भाषा का 'मै मारयो जातु हूँ' उर्दू के 'मै मारा जाता हूँ' के लगभग समान ही है।
___ व्रजभाषा और उर्दू का जो थोडा-सा भेद अभी दिखाया गया है वह केवल प्रादेशिकता मात्र है । अन्य वोलियो में ऐसी अन्य प्रादेशिकताएँ हो सकती है। किन्तु वे अस्थिर है और उनका महत्त्व भी विशेष नहीं है। वोलियों का प्रयोग भी कम हुआ है। उनका प्रचार अवश्य अधिक होने से वे हिन्दी के ही निकट है, जैसा कि हिन्दुस्तानी के सम्बन्ध में है। यह बात खडीबोली के विषय में भी लागू होती है। खडीबोली ही, न कि 'व्रजभाखा', जैसा कि डॉ. गिलक्राइस्ट का कहना है, हिन्दुस्तानी का आधार है, उसी के अनुरूप हिन्दुस्तानी का व्याकरण है।
"अतएव प्रादेशिकता के अतिरिक्त अन्य समानान्तर विषयो की ओर विद्यार्थियो का ध्यान आकृष्ट किया जा सकता है। कॉलेज में जो भाषाएँ पढाई जाती है उनके व्याकरण में किसी प्रकार के परिवर्तन की आवश्यकता नहीं है। हाँ, अन्य दृष्टि से कुछ परिवर्तन आवश्यक है।
__ "हिन्दी और हिन्दुस्तानी में सबसे बडा अन्तर शब्दो का है। हिन्दी के लगभग सभी शब्द संस्कृत के है। हिन्दुस्तानी के अधिकाश शब्द अरबी और फारसी के है । इस सम्बन्ध में डॉ० गिलक्राइस्ट कृत 'पॉलीग्लौट फैन्यूलिस्ट' से एक छोटा-सा उदाहरण लेकर हम सन्तोष कर सकते है
__"हिन्दुस्तानी-"एक बार, किसी शहर में, यूं शुहरत हुई, कि उसके नजदीक के पहाड़ को जनने का दर्द उठा।"
"हिन्दी-"एक समय, किसी नगर में, चर्चा फैली, कि उसके पडौस के पहाड को जनने का दर्द उठा।"
"दोनो के शब्द कहां से लिये गये है, इस सम्बन्ध में बताने की कोई आवश्यकता नहीं है । दोनो के रूप को विगाडे बिना अन्तर और भी अधिक हो सकता था।
"हिन्दी के सम्बन्ध में एक और महत्त्वपूर्ण विषय यह है कि वह नागरी अक्षरो में लिखी जानी चाहिए। सस्कृत-प्रधान रचना जव फारसी लिपि में लिखी जाती है तो शब्द कठिनता से वोधगम्य होते है। कॉलेज के पुस्तकालय में एक ऐसे हिन्दी काव्य, पद्मावत, की दो प्रतियाँ है जिनके पढ़ने में मेरा और भाषा मुशी का निरन्तर परिश्रम व्यर्थ गया है।
"नई लिपि और नये शब्द सीखने में विद्यार्थियो को कठिनाई होगी। किन्तु इससे उनके ज्ञान की वास्तविक वृद्धि होगी। उनका हिन्दुस्तानी ज्ञान थोडे परिवर्तन के साथ फारसी-ज्ञान के अतिरिक्त और कुछ नहीं है। इससे वे न तो भाषा और न देश के विचारों के साथ ही परिचित हो पाते है। हिन्दी के अध्ययन में भी इससे कोई महायता नहीं मिलती। किन्तु हिन्दी के साथ-साथ फारसी-जान से विद्यार्थी हिन्दुस्तानी रचनाएँ सरलतापूर्वक पढ सकेंगे एव हिन्दुओ और उनके विचारो से परिचय प्राप्त करने में भी कोई कठिनाई न होगी।"
विलियम प्राइस के विचारो तथा कॉलेज की पूर्ववर्ती भाषा-सम्बन्धी नीति में स्पष्ट अन्तर है। जहाँ तक हिन्दी-हिन्दुस्तानी के आधार से सम्बन्ध है, दोनो में कोई अन्तर नही है। किन्तु आगे चलकर दोनो ने दो भिन्न मार्गों का अवलम्वन ग्रहण किया। राजनैतिक कारणो से खडीबोली का प्रचार समस्त उत्तर भारत में हो चुका था । टीपू सुलतान इसे दक्षिण में भी ले गया था। अरबी-फारसी शिक्षित हिन्दू और मुसलमानो अथवा मुस्लिम राजदरबारो
'प्रोसीडिंग्ज प्राव दि कॉलेज ऑव फोर्ट विलियम, १५ दिसम्बर, १८२४, होम डिपार्टमेंट, मिसलेनियस, जिल्द ६, पृ० ५०३-५०६, इम्पीरियल रेकॉर्ड्स डिपार्टमेंट, नई दिल्ली।