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संस्कृत व्याकरण में लकार-वाची संज्ञाएँ
__ श्री क्षितीशचन्द्र चट्टोपाध्याय शास्त्री, एम० ए० पाणिनि में जो लकारवाची सज्ञाएँ प्रसिद्ध है, उनके सम्बन्ध मे यह नहीं जान पडता कि क्यो 'लट्' आदि नामो से वर्तमान आदि कालो का ही ग्रहण किया जाय? इस समय सस्कृत व्याकरण में काल-(भूत, भविष्य, वर्तमान) और भावो-(आज्ञा, आशीर्वाद, क्रियातिपत्ति आदि) का भेद नही पाया जाता। परन्तु पाणिनि मे पूर्ववर्ती व्याकरणो मे सम्भवत इस प्रकार का भेद विद्यमान था और दस लकार स्पष्टत दो भागो मे विभक्त ये, एक काल का बोध कराने वाले, जैसे वर्तमान, परोक्ष आदि और दूसरे आज्ञा आदि भाव-वाची । कातन्त्र व्याकरण में, जो अभी तक सुरक्षित है, कुछ पहली सज्ञाएँ वच गई है। 'काले' (३३१३१०) और 'तासाम् स्वसज्ञाभि कालविशेप ।' 'प्रयोगतश्च' (३६१ १५-१६), इन सूत्रो के अधिकार मे यह कहा गया है कि काल विशेष की वाचक अपनी-अपनी सज्ञानो का प्रयोग किया जाना चाहिए। सम्भवत 'काल' शब्द के 'ल' को अलग करके उसी के आधार पर स्वरो के क्रम से 'ट' और 'इ' की 'इत्' सज्ञा जोड कर पाणिनि ने लट्, लिट्, लुट्, लुट्, लेट, लोट्, लड्, लिड्, लुड् और लुड, इन सज्ञामो की रचना की। आशीर्वादात्मक भाव के लिए कोई विशेष सज्ञा न बनाकर पाणिनि ने केवल 'लिडाशिपि' नियम से ही काम चलाया है। यह भी विदित होगा कि प्रधान लकारो के नामो में 'ट्' अक्षर का प्रयोग किया गया है और गीण प्रत्ययो के लिए 'ड्' का। जहाँ 'ट' की 'इत्' सज्ञा है, उसका तात्पर्य यह है कि आगम उससे पहले रक्सा जायगा। इमी तरह से 'ड्' की 'इत्' सज्ञा यह बताती है कि आदेश अन्तिम अक्षर के स्थान में होता है । इस दृष्टि से यह उपयुक्त ही है कि प्रधान प्रत्ययो के नाम-वाची लकारो के लिए 'ट्' अनुवन्ध का प्रयोग किया गया और 'इ' अनुवन्ध अप्रधान या गीण प्रत्ययो वाले लकारो के लिए प्रयुक्त हुआ।
सबसे पहले पाणिनि ने भूत, भविष्यत्, वर्तमान-वाची सज्ञाओ का नामकरण किया और उन्हे लट्, लिट्, लुट् कहा। इन सज्ञामो में अ, इ, उ, इन तीन स्वरो की सहायता ली गई है। उसके बाद लृट् श्राता है, जो कि सामान्य भविष्य काल की सज्ञा है । 'लुट्' सज्ञा 'लुट' के बाद इसलिए रक्खी गई है, क्योकि उसमे 'स्य' इतना अधिक जोडा जाता है। इसके बाद पाणिनि ने ए और ओ, इन दोसन्ध्यक्षरोका प्रयोग करके 'लेट्' और 'लोट्' सज्ञाएँ वनाई, जिनसे क्रियातिपत्ति और आज्ञा इन दो भावो का वोष होता है। क्योकि 'लेट्' लकार मे बहुत करके 'ति', 'तस्' आदि प्रत्यय यथावत् बने रहते है, इसलिए इस लकार को 'लोट्' से पहले रक्खा गया है, जिसमे कि प्रत्ययो में प्राय विकार हो जाता है। ड्कारान्त लकारो में लड़ और लिड् उसी प्रकार एक दूसरे से आगे-पीछे रक्खे गये है, जैसे लुटु और लोट एक दूसरे से । लङ् (अनद्यतन भूत) के वाद आचार्य को लुङ् (सामान्य भूत) कहना चाहिए था, लेकिन पाणिनि ने अब की क्रम बदल कर काल और भाव-वाची सज्ञानो को एक दूसरे के बाद बारी-बारी से रक्खा है। इसी कारण लड् के वाद लिड्, फिर लुङ् और उसके बाद लुङ् रक्खा गया है। चूंकि लुङ् लकार के रूपो में लड् और लुट्, इन दोनो का मेल देखा जाता है, इसलिए सूत्रकार ने लड़ को सबके अन्त मे रक्खा है।
पाणिनि का सूत्र है-'वर्तमाने लट्' (३।२।१२३), अर्थात् वर्तमान काल मे लट् लकार का प्रयोग होता है । इसी को अनुकृति करके कातन्त्र व्याकरण ने लट् के लिए 'वर्तमाना' सज्ञा का प्रयोग किया है। कात्यायन के वार्तिक से (३।३।२११) ज्ञात होता है कि वर्तमान काल के लिए पूर्वाचार्यों के अनुसार 'भवन्ती' सज्ञा थी। उससे भी पहले की सज्ञा 'कुर्वत्' या 'कुर्वती' जान पडती है, क्योकि ऐतरेय ब्राह्मण में कुर्वत्, करिष्यत् और कृतम् ये वर्तमान, भविष्य
और भूतकाल की सज्ञाएं है। बाद के शाखायन पारन्यक मे 'कृ' के स्थान पर 'भू' धातु को अपनाकर तीन कालो के लिए भवत्, भविष्यत् और भूतम्, ये सज्ञाएँ स्वीकृत हुई । बोपदेव के व्याकरण में 'भवत्', 'भूत' और 'भव्य' सज्ञानी