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व्रजभाषा का गद्य-साहित्य
१०३ नावे न जाई, समाई, सुनी इत्यादि । इससे प्रकट होता है कि सिद्धो की रचनाओ मे सस्कृत के साथ लोकभाषा को भी स्थान मिलने लगा था। .
वीरगाथाकाल के पश्चात् भक्तियुग में एक विशेप परिवर्तन यह हुआ कि साहित्य केन्द्र राजस्थान न रहकर व्रज और काशी के आसपास हो गया। फलत राजस्थानी के साथ-साथ व्रजभाषा और अवधी को भी काव्यभाषा होने का सौभाग्य प्राप्त हुया और कुछ ही वर्षों में दोनो भाषायो मे अनेक मुन्दर काव्य रचे गये। आगे चलकर धार्मिक उत्थान का आश्रय पा जाने के कारण व्रजभाषा का क्षेत्र अवघी से बहुत विस्तृत हो गया। काव्य की सर्वमान्य भापा के रूप में प्रतिष्ठित हो जाने के साथ-साथ अनेक गद्य-ग्रन्थ भी उममें रचे गये । भक्तिकाल मे लिखे हुए जितने गद्य-ग्रन्थ अव तक खोज मे प्राप्त हुए है, उनकी मख्या यद्यपि अधिक नहीं है, तथापि गद्य-रचना के क्रम का पता उनसे अवश्य चलता है।
मोलहवी शताब्दी के अन्तिम वर्षों में लिखी एक चिट्ठी कुछ वर्ष हुए खोज मे प्राप्त हुई थी जो रावावल्लभी सम्प्रदाय के प्रवर्तक गोसाई हितहरिवश की लिखी बताई जाती है। वह चिट्ठी' इस प्रकार है
श्रीमुख पत्री लिखति । श्री सकल गुण सम्पन्न रसरीति वहावनि चिरंजीव मेरे प्राननि के प्रान बीठलदास जोज्ञ लिखति श्री वृन्दावन रजोपसेवी श्री हरिवश जोरी सुमिरन वचनी । जोरी सुमिरिन मत्त रही। जोरी जो है सुख वरखत है। तुम कुसल स्वरूप है । तिहारे हस्ताक्षर वारम्बार प्रावत है । सुख अमृत स्वरूप है। बांचत प्रानन्द उमडि चल है। मेरी वृद्धि की इतनी शक्ति नहीं कि कहि सकी। पर तोहि जानत हौं। श्री स्वामिनी जू तुम पर बहुत प्रसन्न है । हम कहा प्राशीर्वाद दैहि । हम यही प्राशीर्वाद देत है कि तिहारोपायुस बढ़ी। और तिहारी सकल सम्पत्ति वढौ। और तिहारे मन को मनोर्थ पूरन होहु । हम नेत्रन सुख देखें । हमारी भेंट यही है। यहां की काहू वात की चिन्ता मति करी। तेरी पहिचानि ते मोकी श्री श्यामाजू बहुत सुप देते है। तुम लिष्यो हो दिन दश में आवेगें। तेई पासा प्रान रहे है। श्री श्यामाजू वेगि लै प्राव । चिरजीव कृष्णदास की जोरी सुमिरन वाचनौ । गोविन्ददास सन्तदास की दडीत । गांगू मेदा को कृष्ण सुमिरन वांचनी । कृष्णदास मोहनदास को कृष्ण सुमिरन । रगा की दडीत । वनमाली धर्मसाला को कृष्ण सुमिरन बांचनी ।
यह चिट्ठी गोसाई श्री हरिवश जी ने अपने प्रिय शिष्य वीठलदास जी को लिखी थी। गोसाई जी का जन्म स० १५५६ है। शुक्ल जी ने इनका रचनाकाल स० १६०० से स० १६४० तक माना है। परन्तु “साहित्य समालोचक" का कहना है कि यह चिट्ठी सवत् १५६५ में लिखी गई थी।' स्पप्ट है कि यदि यह चिट्ठी वास्तव में गोसाई जी की लिखी हुई है तो सवत् लिखने में अवश्य भूल हुई है। हम समझते है कि यह सन् १५३८ (स० १५६५) के आसपास लिखी गई होगी। इसका गद्य विलकुल स्पष्ट है और यदि यह चिट्ठी ठीक है तो उन विद्वानो को वडे आश्चर्य में डालने वाली मिद्ध होगी जो व्रजभापा गद्य को विलकुल अस्पष्ट और अव्यवस्थित समझते है । इसमें सस्कृत शब्दो का प्रचुर प्रयोग हुआ है, यद्यपि तत्मम रूप उन्हें लिपिकार की कृपा से मिला जान पडता है।
___ सोलहवी शताब्दी के प्रारम्भ में महाप्रभु श्री वल्लभाचार्य जी (सन् १४५८-१५३०) के पुत्र और उत्तराधिकारी गोसाई विट्ठलनाथ (सन् १५१५-१५८५) का गद्य सामने आता है । इन्होने 'शृगाररस मडन' और 'राधाकृष्णविहार' नामक दो ग्रन्थ व्रजभाषा मे लिखे थे। इन दोनो की भाषा का नमूना देखिए
'समालोचक' (त्रैमासिक) भाग १, अं० ४, पृ० ३२६ (अक्टूबर १९३५) हिन्दी साहित्य का इतिहास (सशोषित, परिवद्धित सस्करण) स० १९९७, पृ० २१६ 'समालोचक' (अक्टूवर '२५) १-४-३१६ -