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का गद्य-साहित्य
गोरखनाथ जी का समय जानने में जलन्धरनाथ, चौरंगीनाथ, कणेरीपाव, चरपटनाथ, चुणकरनाथ आदि के जीवनकाल की तिथियो से सहायता मिल सकती है। प्रथम महाशय उनके गुरु मछन्दरनाथ के गुरुभाई थे, द्वितीय
और चतुर्थ उन्ही के गुरुभाई थे, तृतीय सज्जन प्रथम अर्थात् जलन्वरनाथ के शिष्य थे और प्रथम चुणकरनाथ के समकालीन थे। इन पांचो के समयो में लगभग ७५ वर्षों का अन्तर होना आवश्यक जान पडता है, परन्तु मिश्रवन्धुप्रो ने इन पाँचो का समय वावा गोरखनाथ का पूर्व-प्रचलित और मान्यकाल सवत् १३५० (सन् १४०७) मान लिया है।' वस्तुत ऐसा करना भ्रमोत्पादक है।
प्रसिद्ध है कि इनके गुरु मछन्दरनाथ (मत्स्येन्द्रनाथ) अपने शिप्य को उपदेश देने के पश्चात् फिर सासारिक व्यवहार में लिप्त हो गये। उस समय गोरखनाथ ने उन्हें इस मायाजाल से छुडाया । इस किंवदन्ती से यह आशय निकाला जा सकता है कि गुरु से दीक्षा लेने के पश्चात् गोरखनाथ के ज्ञानोपदेश अपने गुरु मछन्दरनाथ से भी महत्त्व के होते थे, उनका जनता में पर्याप्त सम्मान था और शिप्य की गुरु से अधिक प्रसिद्धि उन्ही के जीवनकाल मे हो चली यी। कुछ विद्वानों का यह भी कहना है कि इन रचनाओ की जो हस्तलिखित प्रतियां मिली है वे इतनी पुरानी नही है। अतएव यह सन्दिग्व ही है कि ये कृतियां इन प्रतियो में अपने मूल रूप में पाई जाती है । परन्तु शुक्ल जी जैसे विद्वान् इन सव खोजो और विचारो की विवेचना करने के पश्चात् भी इनका समय निश्चित रूप से दसवी शताब्दी मानने को तैयार नहीं है।' जो हो, वावा गोरखनाथ के नाम से प्रचलित ४८ ग्रन्य अव तक खोज में प्राप्त हुए है। इनकी सूची किमी भी इतिहाम-ग्रन्थ मे देखी जा सकती है। इन ग्रन्यो की भाषा और वर्णनशैली की विभिन्नता देखकर अनुमान होता है कि उक्त ग्रन्यो में कुछ ही गोरखनाथ के बनाये हुए हो सकते है। शेप की रचना, उनका सकलन अथवा सम्पादन उनके शिष्यों ने किया होगा। यह कार्य उनकी सम्मति से हो सकता है और उनकी मृत्यु के बाद भी किया जाना सम्भव है। कारण, अपने जीवनकाल मे ही इनको पर्याप्त प्रसिद्धि प्राप्त हो गई थी और ऐसी दशा में शिष्यो का उनके नाम पर अन्य सकलित, सम्पादित करना अथवा रचना स्वाभाविक ही हो गया होगा। इन ग्रन्थो में कुछ गद्य के है। उनकी भाषा यह है
(१) सो वह पुरुष सम्पूर्ण तीर्थ प्रस्नान करि चुको, अरु सम्पूर्ण पृथ्वी ब्राह्मननि को दे चुकौ, शरु सहस्र जज्ञ करि चुकौ, अरु देवता सर्व पूजि चुकौ, अरु पितरनि को सन्तुष्ट करि चुकौ, स्वर्गलोक प्राप्त करि चुकी, जा मनुष्य के मन छनमात्र ब्रह्म के विचार बैठो।
(२) श्री गुरु परमानन्द तिनको दंडवत है । है कैसे परमानन्द ? अानन्द स्वरूप है शरीर जिन्हि को । जिन्हीं के नित्य गाव है सरीर चेतन्नि अरु आनन्दमय होतु है। मै जु हौं गोरष सो मछन्दरनाय को दडवत करत है। है कैसे वे मछन्दरनाथ ? आत्माजोति निश्चल है, अन्तहकरन जिन्हको अरु मूल द्वार ते छह चक जिन्हि नीकी तरह जान । अरु जुगकाल फल्पइनि की रचनातत्व जिनि गायो। सुगन्ध को समुद्र तिन्हि को मेरी दंडवत । स्वामी तुम्हें तो सतगुरु अम्ह तो सिप सवद एक पूछिवा दया करि कहिबा मनि न करिवा रोस।
वावा गोरखनाथ के नाम से प्रचलित सभी ग्रन्थ ऐसी व्रजभाषा में लिखे गये है जिसमें सम्पूर्ण, प्राप्त, सर्व, स्वर्गलोक, सन्तुष्ट, मात्र, मनुष्य, स्वरूप, नित्य, आत्मा, निश्चल, चक्र, कल्प, तत्त्व, सुगन्व, आदि सस्कृत के तत्सम शब्दो का प्रयोग प्रचुरता से हुआ है। गोरखनाथ ने अपने पन्थ के प्रचार के लिए भारत के पश्चिमी भाग-पजाव,
"मिश्रवंधु विनोद, प्रथम भाग, पृ०१६१-२ ।।
"हिन्दुस्तानी भाग ५, अं० ३, पृ० २२९ में श्री नरोत्तम स्वामी एम० ए० का "हिन्दी का गद्यसाहित्य" शीर्षक लेख।
"हिन्दी साहित्य का इतिहास (संशोधित और परिवद्धित संस्करण) स० १६७, पृ० १७ । *"हिन्दी भाषा और साहित्य का विकास' (द्वितीय सस्करण) स० १६६७, पृ० ६३० ।