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व्रजभाषा का गद्य साहित्य
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रण वर्णन की प्रवृत्ति होने से लेखको ने भाषा को साहित्यिक और शुद्ध बनाने का कृत्रिम प्रयत्न नही किया । इन विशेषताओं को देखते हुए कहा जा सकता है कि 'वार्ताएँ' गद्य की सुन्दर रचनाएँ है और इनकी भाषा विषयानुकूल और व्यवस्थित है ।
यह तो हुई 'वार्ताओ' की बात । इनके अतिरिक्त स्वामी गोकुलनाथ के बनाये हुए छ ग्रन्थ - वनयात्रा, पुष्टिमार्ग के वचनामृत (लि० का० सन् १८४८), रहस्यभावना ( लि० का ० सन् १८५४), सर्वोत्तम स्तोत्र, सिद्धान्त - रहस्य, और वल्लभाष्टक - प्रकाश मे आये है । ये सव ग्रन्थ व्रजभाषा में हैं और इनमें पुष्टिमार्ग के सिद्धान्तो तथा भक्ति विषय का प्रतिपादन किया गया है। यदि 'वार्ताश्रो' का रचयिता गोस्वामी गोकुलनाथ को भी मानें तब भी उवत ग्रन्थो को देखकर डा० वडथ्वाल उन्हें अनेक गद्य -अन्थो का निर्माता, उत्कृष्ट विद्वान और श्रेष्ठ लेखक स्वीकार करते है । मत्रहवीं शताब्दी के अन्य गद्य-लेखको मे नन्ददास, नाभादास, तुलसीदास, बनारसीदास, किशोरीदास और वैकुठमणि शुक्ल के गद्यग्रन्थो का पता लगता है । ये ग्रन्थ साहित्यिक दृष्टि से तो विशेष महत्त्व के नही है, तथापि व्रजभाषा - विकास की दृष्टि से इनका मूल्य अवश्य है । इससे हमें तत्कालीन गद्य-भाषा के रूप का कुछ परिचय अवश्य मिलता है और हमे यह कहने का अवसर भी मिलता है कि हमारे कवि कभी-कभी गद्य में लिखा करते थे ।
अष्टछाप के प्रसिद्ध कवि नन्ददास के लिखे 'नासिकेत पुराण भाषा' और 'विज्ञानार्थ प्रवेशिका' नामक ग्रन्थ मिलते हैं । इनका रचनाकाल सन् १५६८ के ग्रासपास होना चाहिए, क्योकि इनके 'अनेकार्थनाममजरी' नामक ग्रन्थ का रचनाकाल सन् १५६७ है । उक्त दोनो ग्रन्थ व्रजभाषा गद्य में बताये जाते है । प्रथम ग्रन्थ उसी नाम की संस्कृत रचना का अनुवाद है और द्वितीय एक संस्कृत ग्रन्थ की व्रजभाषा-गद्य में टीका, जो मिश्रवन्धुओ ने छतरपुर मे देखी थी। इनके पश्चात् ‘भक्तमाल' के प्रसिद्ध कवि नाभादास जी ने सन् १६०३ के अासपास 'अप्टनाम' नामक एक पुस्तक व्रजभाषा - गद्य मे लिखी । उसमे भगवान राम की दिनचर्या का वर्णन है । इस पुस्तक की भाषा का नमूना' यह हैतव श्री महाराजकुमार प्रथम वशिष्ठ महाराज के चरन छुइ प्रनाम करत भये । फिर ऊपर वृद्ध समाज तिनकों प्रनाम करत भये । फिर श्री राजाधिराज कों जोहारि करिकं श्री महेन्द्रनाथ दशरथ जू के निकट बैठत भये 1 नाभादास जी का यह गद्य गोस्वामी विट्ठलनाथ की भाषा से मिलता-जुलता है । 'करत भये', 'बैठत भये', आदि से मिलते-जुलते रूप हम उनकी भाषा में देख चुके है । सन् १६०० के लगभग प्रेमदास नामक एक और गद्यलेखक के प्रादुर्भाव का पता इधर लगा है। इन्होने हितहरिवश जी (जन्म सन् १५०२ ) के 'हितचौरासी' नामक ग्रथ की टीका बडे विस्तार से लगभग ५०० पृष्ठो में की थी। प्रेमदास का समय पूर्णत निश्चित नही है । हितहरिवश जी का रचनाकाल सन् १५४० से १५८० तक मान्य । अत प्रेमदास की टीका इसके बाद लिखी गई होगी । इसी समय के लगभग का गोस्वामी तुलसीदास जी का लिखा हुआ एक पचनामा मिलता है । उसकी कुछ पक्तियाँ" इस प्रकार है
स० १६६६ समये कुमार सुदी तेरसी बार शुभ दिने लिखीत पत्र आनन्दराम तथा कन्हई के प्रश विभाग पूर्व मु श्रागे जे श्राग्य दुनहु जने माँगा जे श्राग्य भै शे प्रमान माना दुनहु जने विदित तफसील अश टोडरमल के माह जे विभाग पदु होत रा । । मौजे भदेनी मह प्रश पाँच तेहि मँह श्रश दुइ श्रानन्दराम तथा लहरतारा सगरेउ तथा पितुपुरा श्रश टोडरमलुक तथा तमपुरा श्रश टोडरमल की हील हुज्जती नाश्ती ।
'प्राचीन हस्तलिखित ग्रन्थो की खोज का पन्द्रहवां त्रैवार्षिक विवरण, पृ० ३६८
मिश्रवन्धुविनोद प्रथम भाग, पृ० २२६
२
, 'हिन्दुस्तानी-५-३, पृ० २५५
४
* हिन्दी साहित्य का इतिहास --- सशोधित सस्करण, पृ० २१९ 7
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'हिन्दी भाषा और साहित्य का विकास -- ( द्वि० सस्करण) स० १९६७, पृ० ६३५
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