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प्रेमी-अभिनदन-प्रथ १०८
इस पचनामे की भाषा व्रज नही, बोलचाल की अवधी है । परन्तु इसमें प्रयुक्त 'मांगा', 'माना' आदि शब्द ध्यान देने योग्य है। इसी प्रकार तफसील, हुज्जती, आदि फारसी के शब्द सम्भवत इस बात की याद दिलाते है कि टोडरमल की कृपा से राजकाज की भाषा फारसी हो गई थी और इसके फलस्वरूप पचनामे में ऐसे शब्दो का प्रयोग करना आवश्यक था। इस पचनामे की रचना सन् १६१२ में हुई थी। इसी समय के आसपास जौनपुर के वनारसीदास (जन्म सन् १५८६) नामक एक जैन मतावलम्बी कवि के लिखे हुए कुछ उपदेश बजभापा-गद्य में मिलते हैं। सन् १६१३ के लगभग इन्होंने एक पुस्तक लिखी थी। उसकी कुछ पक्तियाँ देखिए
सम्यग् दृष्टि कहा ? सो सुनो । सशय, विमोह, विभ्रम तीन भाव जाम नाहीं सो सम्यग् वृष्टी । सशय, विमोह, विभ्रम कहाँ ? ताको स्वरूप दृष्टान्त करि दिखाइयतु है सो सुनो। ।।
वैकुठमणि (सन् १६२५ के लगभग वर्तमान) की दो छोटी-छोटी पुस्तके 'अगहनमाहात्म्य' और 'वैशाखमाहात्म्य' मिलती है । ये पोरछा के महाराज जसवन्तसिंह की महारानी के लिए लिखी गई थी। यह वात द्वितीय पुस्तिका मे स्वय लेखक ने इस प्रकार लिखी है
___ सब देवतन की कृपा तें बैकठमनि सुकुल श्री महारानी श्री रानी चन्द्रावती के परम पढिवे के भरय यह जयरूप ग्रन्थ बैसाख-महात्म भाषा करत भये ।
इस वाक्य से हमें इन ग्रन्थो की भाषा का नमूना मिल जाता है और यह भी ज्ञात होता है कि ये अनुवाद मात्र है। इनकी रचना का समय सन् १६२५ के आसपास समझना चाहिए।
वैकुठमणि के समकालीन विष्णुपुरी नामक लेखक ने सन् १६३३ मे भक्तिरलावली' नाम का एक अन्य व्रजभाषा में अनुवादित किया। इस काल की अन्य रचनाओ से यह वडा है । 'भुवनदीपिका' नामक एक ग्रन्थ इनके किसी समकालीन लेखक का बनाया जान पडता है, क्योकि इसका रचनाकाल सन् १६१४ है।
वैकुठमणि के दोनो 'माहात्म्यो' के लगभग ८० वर्ष पश्चात् सन् १७०५ के आसपास 'नासिकेतोपाख्यान' नामक एक ग्रन्थ लिखा गया। इसकी भाषा का नमूना देखिए
हे ऋषीश्वरों! और सुनो, देख्यो है सो फहूँ। काले वर्ण महादुख के रूप जकिकर देखें। सर्प, वोछ, रीछ, व्याघ्र, सिंह, वडे-बडे ग्रघ देखे । पन्थ में पापकर्मी को जमदूत चलाइ के मुग्दर अरु लोह के दड कर मार देत है। आगे और जीवन को त्रास देत देखे है। सु मेरो रोम-रोम खरोहोत है।
इसके पांच-छ वर्ष बाद सन् १७१० में पागरें के सुरति मिश्र ने व्रजभापा में 'वैतालपचीमी' लिखी । इमका कथानक सस्कृत के 'वैतालपचविंशति' से लिया गया था। इसके अतिरिक्त "विहारीसतसई' की 'अमरचन्द्रिका' नाम से कविप्रिया तथा रसिकप्रिया की उन्ही नामो से टोकाएँ भी मिश्र जी ने की। 'अमरचन्द्रिका' का रचनाकाल सन् १७३४ है और शेष दोनो का सन् १७४० के आसपास। इन टोकाप्रो से इतना तो स्पष्ट है ही कि कभी-कभी शास्त्रीय विषयों के निस्पण के लिए हमारे प्राचार्य गद्य का भी उपयोग किया करते थे। इस सम्बन्ध में स्व० शुक्ल जी का मी यही मत है।
__ सन् १७६५ मे, लगभग ८५ वर्ष पश्चात्, हीरालाल ने जयपुर-नरेश सवाई प्रतापसिंह की आज्ञा से 'प्राईन अकवरी की भापा वचनिका' तैयार की। इसकी भाषा का नमूना यह है
'देखिए फुटनोट-हिन्दुस्तानी-५०-३-२५५ 'इन्होंने स्वय लिखा है-सूरत मिश्र कनौजिया, नगर प्रागरे वास । 'हिन्दी साहित्य का इतिहास-सशो० सस्करण, पृ० ३४०
हिन्दी साहित्य का इतिहास-संशो० सस्करण, पृ. २६६ "हिन्दी भाषा और माहित्य का विकास (द्वि० सस्करण) पृ० ६३६