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व्रजभाषा का गद्य साहित्य
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१०६ अब शेख अबुल फजल ग्रन्थ को करता प्रभु को निमस्कार करिकै अकबर वादस्याह की तारीफ लिखने को करुत करें है । अरु कहे है- -या की बड़ाई अरु चेष्टा श्ररु चिमत्कार कहाँ तक लिखूं । कही जात नाहीं । तें या पराकरम अरु भाँति भाँति के दस्तूर व मनसूबा दुनिया में प्रगट भये, ताको सखेप लिखत है ।
इन अवतरणी की भाषा बहुत कुछ व्यवस्थित होते हुए भी "वार्तायो" की भाषा का सो डेढ सौ वर्षों में विकसित रूप नही कहा जा मकता । इन्हें देखकर इतना अवश्य कहा जा मकता है कि व्रजभाषा में यदा-कदा गद्य-ग्रन्थ लिख लिये जाते थे । परन्तु उक्त लेखको के पश्चात् व्रजभाषा गद्य का विकास नही हुआ । रीतिकाल के लेखको ने तो इमका प्रयोग काव्य-प्रन्यो की केवल गाव्दी टीका करने के लिए किया, यहाँ तक कि एक भी स्वतन्त्र और प्रोढ व्रजभापा का ग्रथ इस समय नही लिखा गया। टीका और भाप्य इस समय के अवश्य मिलते है—एक बिहारी सतसई की ही कई टीकाएँ पाई जाती है, परन्तु भाषा-शैली के विकास की दृष्टि से इनका विशेष मूल्य नही है । कारण यह है कि इनकी भाषा प्राय श्रव्यावहारिक और अव्यवस्थित है तथा शैली अपरिमार्जित और पडिताऊ ढग की । 'रामचन्द्रिका' की मन् १८१५ के लगभग लिखी हुई टीका का एक उदाहरण देखिए
राघव शर लाघव गति छत्र मुकुट यो हयो ।
हंस सवल असु सहित मानहु उडि के गयो ॥
टीका - सबल कह अनेक रग मिश्रित है प्रसु कहे किरण जाके ऐसे जे सूर्य हैं जिन सहित मानो कलिन्दागिरिसेहत समूह उडि गयो है । यहाँ जाहि विषै एक वचन है। हसन के सदृश स्वेत छत्र है और सूर्यानि के सदृश अनेक नभ-जटित मुकुट है ।
'वार्ता' की भाषा से इस भाषा की तुलना करने पर स्पष्ट होता है कि व्रजभाषा के गद्य का विकास न होकर ह्रास होने लगा । यदि 'वार्ताओ' की भाषा में उमी प्रकार स्वतन्त्र रूप मे गद्य-ग्रन्थ रचना होती रहती तो कदाचित् भाषा की व्यजना-शक्ति बढती जाती, परन्तु एक तो विषय की परतन्त्रता और दूसरे टीकाकारो की सकुचित मनोवृत्ति के कारण ऐसा न हो सका । 'कविप्रिया', 'रसिकप्रिया', 'विहारीसतमई', 'शृगारगतक' आदि अनेक ग्रन्थो की टीकाएँ इम युग में हुईं और सुरति मिश्र, किशोरदास तथा सरदार कवि आदि अनेक व्यक्तियो ने इस क्षेत्र में काम किया, परन्तु प्राय सभी की भाषा ऊपर दिये हुए नमूने की तरह अनगढ़ और अनियन्त्रित ही है, जिमसे मूल पाठ टीकाओ में मरल और स्पष्ट न होकर दुर्वोव और अम्पष्ट हो गया है । टीकाओ का मूल्य कितना है, यह इम कथन से ठीकठीक ज्ञात हो जायगा कि मूल पढकर उसका अर्थ भले ही समझ लिया जाय, परन्तु इन टीकाओ का समझना एक कठिन समस्या है |
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ब्रजभाषा-गद्य के विषय में जैसा ग्रव तक हम देख चुके है, पर्याप्त मामग्री मिलती है । फिर भी हमारे इतिहास-लेखको को जो गद्य का कोई विकास क्रम नही मिलता उसका कारण यह है कि उन्होने व्रजभाषा - गद्य के विकाम का क्षेत्र समझने का प्रयत्न नही किया । वस्तुत व्रजभाषा- गद्य का विकास दो साहित्यिक दलो ने स्वतन्त्र रूप से किया - ( १ ) भक्त कवि और आचार्यों ने (२) रीतिकालीन प्राचार्यों ने । भक्ताचार्यो ने गद्य में ग्रन्थ लिखने पहले आरम्भ कर दिये थे, क्योकि एक तो उनका प्रादुर्भाव पहले हुआ और दूसरे जन साधारण की भाषा अपनाने की आवश्यकता उन्हें अपेक्षाकृत अधिक थी । इन भक्तो का गद्य दो रूपो में विकसित हुआ । एक तो स्वान्त सुखाय ग्रन्थ रचना के लिए और दूसरे पडिताऊ ढग मे कथावार्ता के लिए । रीतिकालीन कवियो ने गद्य में ग्रन्यरचना बहुत देर मे प्रारम्भ की और दूमरे उन पर सस्कृत के पडिताऊ ढग का भी प्रभाव था । भक्तो के पडिताऊ ढग की भाषा से इनका गद्य वहुत-कुछ मिलता-जुलता है ।
'हिन्दी साहित्य का इतिहास - पृ० ४८२