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हमारे पुराने साहित्य के इतिहास की सामग्री
परन्तु इतना तो स्पष्ट है कि हमारे इस साहित्य के माध्यम से मनुष्य को पढने के अनेक मार्गों पर अभी चलना बाकी है।
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कबीरदास के बीजक में एक स्थान पर लिखा है कि "ब्राह्मन वैस्नव एकहि जाना" ( १२वी ध्वनि) । इससे ध्वनि निकलती है कि ब्राह्मण और वैष्णव परस्पर विरोधी मत है । मुझे पहले-पहल यह कुछ अजीब बात मालूम हुई । ज्यो-ज्यो मैं बीजक का अध्ययन करता गया, मेरा विश्वास दृढ होता गया कि बीजक के कुछ श्रश पूर्वी और दक्षिणी विहार के धर्ममत से प्रभावित है । मेरा अनुमान था कि कोई ऐसा प्रच्छन्न बौद्ध वैष्णव सम्प्रदाय उन दिनो उस प्रदेश में अवश्य रहा होगा, जिसे ब्राह्मण लोग सम्मान की दृष्टि से नही देखते होगे । श्री नगेन्द्रनाथ वसु ने उडीसा के पाँच वैष्णव कवियो की रचनाओ के अध्ययन से यह निष्कर्ष निकाला है कि ये वैष्णव कवि वस्तुत' माध्यमिक मत के बौद्ध थे और केवल ब्राह्मण प्रधान राज्य के भय से अपने को वौद्ध कहते रहे । मैने अपनी नई पुस्तक 'कवीरपंथी साहित्य' में विस्तार पूर्वक इस बात की जाँच की है । यहाँ प्रसग केवल यह है कि हिन्दी - साहित्य के ग्रन्थो का अध्ययन अनेक लुप्त और सुप्त मानव-चिन्ता-प्रवाह का परिचय दे सकता है । केवल पुस्तको की तिथि-तारीख तक ही साहित्य का इतिहास सीमावद्ध नही किया जा सकता । मनुष्य-समाज वडी जटिल वस्तु है । साहित्य का अध्ययन उसकी अनेक गुत्थियो को सुलझा सकता है ।
परन्तु इन सवसे अधिक आवश्यक है विभिन्न जातियो, सम्प्रदायो और साधारण जनता मे प्रचलित दन्तकथाएँ । इनसे हम इतिहास के अनेक भूले हुए घटना-प्रसगो का ही परिचय नही पायेंगे, मध्ययुग के साहित्य को समझने का साघन भी पा सकेंगें । झारखड श्रौर उडीसा तथा पूर्वी मध्यप्रान्त की अनेक लोक प्रचलित दन्तकथाएँ उन अनेक गुत्थियो को सुलझा सकती है, जो कवीरपन्थ की बहुत गूढ और दुरूह वातें समझी जाती है । इस ओर वहुत अधिक ध्यान देने की आवश्यकता है । विभिन्न आँकडो और नृतत्त्वशास्त्रीय पुस्तको में इतस्तस्तोविक्षिप्त बातो का संग्रह भी बहुत अच्छा नही हुआ है । ये सभी वातें हमारे साहित्य को समझने में सहायक है । इनके विना हमारा साहित्यिक इतिहास अधूरा ही रहेग शातिनिकेतन ]