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प्रेमी-अभिनदन-ग्रंथ
(१) जम के सिर पर सब्दायमान करत है, विविध वायु वहत है, हे निसर्ग स्नेहार्द सखी कूँ सम्बोधन प्रिया नेत्र कमल कूं कछु मुद्रित दृष्टि होय के वारम्वार कछु सभी कहत भई, यह मेरो मन सहचरी एक छन ठाकुर को त्यजत भई । - 'राधाकृष्ण विहार' से । '
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(२) प्रथम की सखी कहतु हैं । जो गोपीजन के चरन विषै सेवक को दासी करि जो इनको प्रेमामृत में वि के इनके मन्द हास्य ने जीते है । अमृत समूह ता करि निकुज विषै शृगाररस श्रेष्ठ रसना कोनो सो पूर्ण भई । - 'शृगाररसमडन' से ' यह गद्य गोरख-पन्थी ग्रन्थो के लगभग दो सौ वर्ष पश्चात् का नमूना है । भाषा के परिमार्जन के लिए दो शताब्दियो का समय श्राज बहुत होता है, परन्तु संस्कृत की प्रधानता के उस युग में, जब 'भाषा' की कविता भी सम्मान की दृष्टि से नही देखी जाती थी, गद्य में लिखने का चलन अधिक नही था । अत दो सौ वर्ष बाद भी गद्य को उसी प्रकार परिमार्जित और अव्यवस्थित देखकर हमें आश्चर्य नही होना चाहिए ।
ऊपर दिये हुए प्राय सभी अवतरणो में एक बात जो समान रूप से पाई जाती है वह है संस्कृत के तत्सम शब्दो का प्रयोग । 'योगाभ्यास मुद्रा' के गद्य में सिद्धो की वाणी मे संस्कृत पदावली के मध्य हिन्दी भाषा का अकुर देखा जाता है । गोरखपन्थी ग्रन्थो में तो सस्कृत के तत्सम शब्द प्रयुक्त हुए ही है । वही बात गोसाई विट्ठलनाथ की भाषा में भी देखने को मिलती है, जहाँ विविध, निसर्ग, स्नेहार्द्र, सम्वोधन, मुद्रित दृष्टि, सहचरी, क्षण, चरण, प्रेमामृत, मन्दहास्य, समूह, निकुज, श्रेष्ठ रसना, पूर्ण यादि शब्दो का स्वतन्त्रता के साथ प्रयोग किया गया है । 'हरिश्रोघ' जी की सम्मति' में, श्रीमद्भागवत का प्रचार और राधाकृष्णलीला का साहित्यक्षेत्र में विषय के रूप में प्रवेश करना ही इस संस्कृत शब्दावली की लोक-प्रियता तथा उसके फलस्वरूप हिन्दी गद्य में उसके स्थान पाने का कारण जान पडता है । प्रान्तीय भाषाओ के प्रभाव भी उक्त अवतरणो में दिखाई पडते है । 'पै' के स्थान पर 'पर' और 'को', 'को' अथवा 'कों' के स्थान पर 'कू' का प्रयोग ऐसे ही प्रभावो का परिणाम है ।'
सत्रहवी शताब्दी के व्रजभाषा - गद्य लेखको में सबसे पहला नाम हरिराय का श्राता है । इनका जीवनकाल स० १६०७ माना गया है । ये महाप्रभु वल्लभाचार्य के शिष्य एव संस्कृत तथा हिन्दी के अच्छे ज्ञाता बताये गये है । इनके कई ग्रन्थो का विवरण सभा की पिछली कई रिपोर्टों में आया है। * सन् १९३२-३४ के त्रैवार्षिक विवरण में इनके रचे ग्रन्थ— - (१) कृष्णप्रेमामृत (२) पुष्टि दृढावन की वार्ता ( लिपिकाल सन् १८५६) (३) पुष्टि प्रवाहमर्यादा (४) सेवाविधि (लिपिकाल सन् १८०७ ) ( ५ ) वर्षोत्सव की भावना (६) वसन्त होरी की भावना (लिपिकाल सन् १८४५) (७) भाव-भावना । इन सात ग्रन्थो में अन्तिम गद्य का एक विशालकाय ग्रन्थ है, जिसमें 'रावाजी के चरण-चिह्नों की भावना, नित्य की सेवाविधि, वर्षोत्सव की भावनाएँ, डोल उत्सव की भावना, छप्पन भोग की रीति, हिंडोरादि की भावनाएं, सातो स्वरूप की भावना एव भोग की सामग्री आदि बनाने की रीति दी गई है | नीचे 'भाव-भावना' में से इनके गद्य का उदाहरण दिया जाता है
सो पुष्टिमार्ग में जितनी क्रिया है, सो सब स्वामिनी जी के भावते है । तातें भगलाचरण गावें । प्रथम श्री स्वामिनी जी के चरण-कमल कों नमस्कार करत है । तिनकी उपमा देवे को मन दसो दिसा दोरयो । परन्तु
'हिन्दी भाषा और साहित्य का विकास (द्वितीय सस्करण) स० १६६७, पृ० ६३१ 'हिन्दी साहित्य का इतिहास (सशोधित, परिवद्धित सस्करण) १९९७, 'हिन्दी भाषा और साहित्य का विकास (द्वि० सस्करण) स० १९९७, पृ० ६३१-३२
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* देखिए-- रि० १६०० ई० स० ३८, १६०६-११ ई० स० ११५, १९१७-१६ ई० स०७४, १ε२३-२५ ई० स० १६०, १६२६-३१ ई०, १९३२-३४ ई०
"प्राचीन हस्तलिखित हिन्दी ग्रन्थो की खोज का पन्द्रहवां त्रैवार्षिक विवरण (सन् १९३२-३४) पू० ३७६