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'प्रेमी-अभिनदन-ग्रंथ
(११) कायस्थ-प्रभु-महाराष्ट्र में यह एक जाति का नाम है। कायस्थ प्राचीन काल में लेखको के वर्ग का नाम था, राष्ट्र के कुछ अन्य दीवानी अफसर भी इसी जाति के होने थे, परतु कायस्थ शब्द की उत्पत्ति कैसे हुई, यह अज्ञात है। कुछ विद्वानों का मत है कि यह शब्द मूलन ईरानी है, प्राचीन फारसी मे राजा के लिए खपायथिय (Khshāyathiya) शब्द मिलता है। इससे प्राचीन प्राकृत का रूप खायथिय बना होगा, जिसमे कायस्थ बन सकता है, और उससे सस्कृत रूप कायस्थ हो गया होगा। एक केंद्रित शासन में छोटे अफसरी, क्लर्को तथा मनियो आदि के लिए सम्मानार्थ प्रयुक्त कायस्थ शब्द सभवत उम काल की ओर मकेत करता है जब उत्तर-पश्चिम भारत मे ईरानी शासन को प्रभुता थी। अत महाराष्ट्र में प्रचलित कायस्थ-प्रभु गन्द मुरुड-स्वामिनी शब्द की तरह, (ऊपर न०५), एक अनुवाद-मूलक समस्त-पद सिद्ध होगा।
(१२) संस्कृत का गौर शब्द एक प्रकार की भैस के लिए प्रयुक्त होता है। गौर का शाब्दिक अर्थ 'सफेद' है। किंतु भैस काली होती है, और उसके साथ इस विशेषण को सबद्ध करना असगत प्रतीत होता है। गवय, गवल तथा गोण अन्य सस्कृत नाम है, जो भैस और वैल के लिए प्रयुक्त होते है। इनकी उत्पत्ति गी या गव से हुई है। हो सकता है कि गौर एक अनुवादमूलक समस्त-पद है, जो आर्य-भाषा के गौ, गो तथा ऑस्ट्रिक (कोल) के उर (=जानवर) शब्दो से मिलकर बना है । सथाली और मुडारी भाषामो मे उरि गब्द गाय और भैम के लिए प्रयुक्त होता है।
(१३) सस्कृत तुडि-चेल='एक प्रकार का वस्त्र'। ऐसे वस्त्र का उल्लेस बौद्ध अथ 'दिव्यावदान' में मिलता है। चेल आर्य-भाषा का शब्द है, जिसका सवध चोर शब्द से है, जो उसी धातु से निकला है, जिससे हिंदी का चीरना और बैंगला का चिरा। इस प्रकार चोर, चेल का अभिप्राय 'वस्त्र के टुकडे' से है। तुडि-चेल के पहले पद का मूल रूप द्राविड भाषाओ मे मिलता है (तामिल तुटु या तुडु, कन्नड तुडु, तेलगु तुट='टुकडा, कपडे का एक छोटा टुकडा, तौलिया')।
(१४) संस्कृत मुसार-गल्व'एक किस्म का मूगा, एक प्रकार का चमकीला कीमती पत्यर'। मैने अन्यत्र मुसार शब्द की व्युत्पत्ति के विषय मे विस्तार से लिखा है। मेरे मत से यह शब्द प्राचीन चीनी भाषा से भारत में आया है, जिसमें कीमती या मामूली पत्थर के लिए म्वा-सार (mwa-sar) शब्द आता है। प्राचीन चीनी भाषा में इस शब्द का मवव फारसी और अरवी के बिस्सद और बुस्सद (bissad, bussad) (=भूगा) शब्दो से जान पड़ता है।
[आधुनिक चीनी में इसका उच्चारण है मू-सा (mu-sa) प्राचीन चीनी में इसका उच्चारण था म्वर-सार (mwa-sar) और ब्वा-साथ् (bwa-sadh) ] | दुसरा पद गल्व, जिसका रूप गल्ल भी मिलता है, मेरे विचार से पत्थर के लिए साधारणत प्रयुक्त द्राविड शब्द है। तामिल मे इसका रूप कल्, तेलगु मे कल्लु और जाहुई मे खल् मिलता है। सिंहली भापा मे गल्ल शब्द आता है, जो प्राचीन द्राविड भाषा के गल या गल्ल से लिया गया है। इस प्रकार मुसार-गल्ल शब्द चीनी तया द्राविड भाषामो का सम्मिलित अनुवादमूलक रूप है, जिसे प्राचीन भारत मे पहले प्राकृतो में और फिर सस्कृत में अपना लिया गया है।
यद्यपि स्पष्ट तथा भलीभाति प्रमाणित उदाहरणो की संख्या बहुत नही है, तो भी आद्य भारतीय आर्य (संस्कृत) तथा मध्य भारतीय आर्य (प्राकृत) भाषाओ के जिन थोडे से शब्दो का विवेचन ऊपर किया गया है, उसमे हम इम उपपत्ति पर पहुंच सकते हैं कि प्राचीन भारत में विभिन्न भाषाओ के बीच आदान-प्रदान जारी था। अनार्य बोलियां भी प्रचलित थी और उनकी शक्ति दो सहस्र वर्ष पूर्व तथा उसके बाद तक बहुत प्रवल थी और भारतीय आर्यभापायो के ब्राह्मण्य, जैन तथा वौद्ध धर्म-सवधी साहित्य मे उनका प्रभाव दृष्टिगोचर है। इस अोर अभी तक विद्वानो का व्यान नहीं गया है। अनार्य भापानो से अनेक शब्दो और नामो का भारतीय आर्य-भाषामो मे आना जारी था। पीछे जव कि असली अनार्य भाषाओ का लोप हो गया, तब साथ ही उनके महत्त्व का भी प्रत हुना, सिवा इसके कि कही-कही भूले-भटके उनका अस्तित्व अव भी मिल जाता है। विदेशी भाषाएँ-ग्रीक, प्राचीन फारसी और अन्य अनेक