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'वीच' की व्युत्पत्ति
कठिनता है (देखिए पृष्ठ ६४ ) । और यदि प्रा० 'विच्च' के मूलभूत संस्कृत शब्द को 'व्यच्' धातु मे न वनाकर, 'वि+अच् (अञ्च्)' धातु से वनाना श्रावश्यक माना जाय, तो भी *" वीच्य' की कल्पना करना अनावश्यक है । प्रा० 'विच्च' का विकास स ० * ' बीच ' से भी हो सकता है, क्योकि मस्कृत के दीर्घस्वर + एक व्यञ्जन के स्थान पर भी कभीकभी प्राकृत में ह्रस्वस्वर + व्यञ्जनसयोग (द्वित्व) हो जाया करता है, जैसे स ० ' नीड - ' > प्रा० 'णिड्डू - ', स० 'पूजा -> प्रा० 'पुज्जा-' ।' 'विच्च' के अर्थ "अन्तर, अवकाश' से 'वि+अच् (ग्रञ्च ) ' धातु के अर्थ का सम्बन्ध वनाने के लिए भी * ' वीच्य-' की अपेक्षा 'वीच' ही अधिक उपयुक्त है । सामान्यतया * ' वीच्य-' का अर्थ होगा "विस्तार करने योग्य" श्रौर* 'वीच' का "विस्तार" । साराश यह कि प्रा० 'विच्च' के लिए *'विच्य-' ('व्यच्' धातु) अथवा * ' वीच ' ('वि + अच्' धातु) की ही कल्पना करना अधिक सरल मार्ग है ।
उपर्युक्त विवेचन से स्पप्ट है कि यद्यपि टर्नर की व्युत्पत्ति श्रव तक दी हुई सव व्युत्पत्तियो से अधिक सगत र भाषा-विज्ञान के नियमो के अनुकूल है, फिर भी इसे सर्वथा सन्तोष जनक नही कहा जा सकता । " इस प्रकार उपर्युक्त चारो व्युत्पत्तियो मे से कोई भी उपादेय सिद्ध नही होती। नीचे की पक्तियो में एक नई व्युत्पत्ति' विद्वानो के विचार के लिए उपस्थित की जाती है । ( किन्तु इन पक्तियो के लेखक को अपनी व्युत्पत्ति की 'मान्यता' के विषय में कोई श्राग्रह नही है । इस प्रकार की व्युत्पत्तियो के विषय में मतभेद होना स्वाभाविक है ) । संस्कृत में 'अच्' अथवा 'श्रञ्च्' ("जाना, मुडना, झुकना " ) धातु से वने हुए अनेक विशेपण वाचक शब्द हैं, जिनमें 'ग्रञ्च' का अर्थ " की ओर " अथवा " की ओर न ( या जाने वाला" होता है । उदाहरण के लिए 'अधराञ्च् -' ('घर + ञ्च) "नीचे वी थोर" अथवा "नीचे की ओर जाने वाला', 'ग्रन्वञ्च्-' ('अनु + अञ्च्') "किसी के पीछे जाने वाला, अनुगामी', 'उदञ्च्' ('उत् + अञ्च्') "ऊपर (उत्तर) की ओर" अथवा " ऊपर की श्रोर जाने वाला”, 'न्यञ्च्-' ('नि+ग्रञ्च्') "नीचे की ओर" अथवा "नीचे की ओर जाने वाला", 'प्राञ्-' ('प्र+ श्रच्') "आगे की ओर (पूर्व ) " अथवा " आगे की ओर जाने वाला", 'प्रत्यञ्च् -" ("प्रति + अञ्च् ) “विरुद्ध दिगा, पीछे की ओर (पश्चिम) " अथवा "विरुद्ध दिशा की ओर जाने वाला”, 'सम्यञ्च्' ('समि + अञ्च्', 'समि' = 'सम् ' )
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'वास्तव में यह परिवर्तन " भ्रम - मूलक" है । बात यह है कि पाली तथा प्राकृत का यह एक सामान्य नियम है कि दीर्घस्वर के बाद केवल एक व्यञ्जन रह सकता है, व्यञ्जनसयोग नहीं; किन्तु ह्रस्व स्वर के बाद एक व्यञ्जन भी रह सकता है, और व्यञ्जनसयोग भी । फलत संस्कृत के दीर्घस्वर + व्यञ्जनसयोग के स्थान पर ह्रस्वस्वर - + व्यञ्जनसयोग अथवा दीर्घस्वर + एक व्यञ्जन हो जाता है । संस्कृत का दीर्घस्वर + एक व्यञ्जन प्राकृत में भी दीर्घस्वर - + एक व्यञ्जन रह सकता है । किन्तु उपर्युक्त नियम को व्यापकता के कारण कभी-कभी इसका " दुरुपयोग" भी हो जाता है— सस्कृत के दीर्घस्वर + एक व्यञ्जन को प्राकृत में ज्यो का त्यो रखा जा सकने पर भी, ह्रस्वस्वर + दो व्यञ्जन में परिवर्तित कर दिया जाता है। फिर भी इस " दुरुपयोग" के आधार पर भी स० * 'वीच' को प्रा० 'विच्च' में परिवर्तित करना सम्भव है ही । विशेषत इसलिये कि श्रर्य की दृष्टि से 'वीच' - ( " विस्तार") अधिक उपयुक्त है ।
देखिये, ग्राल्स्डोर्फ, "अपभ्रंश - स्टूडिएन", पृ० ७६ - " टर्नर की व्युत्पत्ति मुझे मान्य नहीं जँचती । किन्तु इस स्थान पर कोई अन्य अधिक उचित, व्युत्पत्ति रखने में भी असमर्थ हूँ " ।
, यह व्युत्पत्ति यद्यपि टर्नर की व्युत्पत्ति से मिलती-जुलती है, और उसके आधार पर किसी को सूझ सकती है, फिर भी मैं इसे "नई" इसलिये कह सका हूँ कि मैने टर्नर की व्युत्पत्ति देखने से कई मास पूर्व इसे सोचा था और "नोट्" करके पड़ा रहने दिया था। इस लेख के लिये मसाला इकट्ठा करते समय हो मुझे टर्नर की व्युत्पत्ति का पता चला। इसके अतिरिक्त, टर्नर की व्युत्पत्ति और इस व्युत्पत्ति में, ध्वनि विकास की श्राशिक समानता होते हुए भी अर्थ-विकास का विवेचन बिलकुल भिन्न है ।