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श्री प्रश्नव्याकरण सूत्र
प्राणी मनुष्य के मौजशौक या वैषयिक सुख कामना की पूर्ति के लिए हैं। उन जीवों को भी जीने का अधिकार है । अपनी आत्मा के समान उन्हें भी सुख और दुःख का संवेदन होता है, उन्हें भी मरने का दुःख अतीव पीड़ा पहुंचाता है । पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और वनस्पति, इन एकेन्द्रिय प्राणियों में चाहे चेतना सुषुप्त या मूच्छित हो, परन्तु है अवश्य । वैदिक धर्ममान्य स्मृतिशास्त्र में भी इसे माना है--
'अन्तःप्रज्ञा भवन्त्येते सुखदुःखसमन्विताः ।
शारीरजः कर्मदोषर्यान्ति स्थावरतां नरः ॥' 'ये स्थावर जीव भी सुख और दुःख के संवेदन से युक्त और अन्तश्चेतना वाले होते हैं। मनुष्य शरीरजन्य कर्म-दोषों के कारण स्थावर योनियों को प्राप्त करता है।'
मनुष्य संसार के सभी प्राणियों में ज्येष्ठ और श्रेष्ठ माना जाता है। उसकी ज्येष्ठता और श्रेष्ठता तभी सार्थक हो सकती है, जब वह अपने से निम्न और अविकसित चेतना वाले या अल्पविकसित चेतनाशील प्राणियों के प्रति करुणा, सहानुभूति, वत्सलता, और आत्मीयता का व्यवहार करे। यही कारण है कि शास्त्रकारों ने उन प्राणियों की दयनीयता का सजीव चित्र खींचकर संसार के श्रेष्ठ प्राणी—मनुष्य का ध्यान आकर्षित किया है कि "वे बेचारे अत्राण हैं, अशरण हैं, अनाथ हैं, अबांधव हैं, अपने पूर्वकृत कर्मों की बेड़ियों से जकड़े हुए हैं, मिथ्यात्ववश अकुशल परिणामी हैं, साधारण मंदबुद्धि मानव इनके अस्तित्व की उपेक्षाकर देता है । इसी प्रकार तिर्यञ्च- . पंचेन्द्रिय (जलस्थलनभचारी) जीवों और विकलेन्द्रिय (दो-तीन-चार इन्द्रियों वाले) जीवों की भी दयनीयदशा का वर्णन करते हुए कहा है-इन्हें अपनी जिंदगी प्यारी है, ये मरने के दुःख के खिलाफ हैं, दीनहीन हैं और अनेक प्रकार के संक्लिष्ट कर्मों से बंधे
समस्त संसारी जीवों का मौटे तौर से स्वरूप समझने के लिए हम नीचे एक तालिका दे रहे हैं
त्रस
स्थावर एकेन्द्रिय
द्वीन्द्रिय त्रीन्द्रिय चतुरिन्द्रिय पञ्चेन्द्रिय
१ पृथ्वीकाय २ अप्काय ३ तेजस्काय ४ वायुकाय ५ वनस्पति काय
देव ।
तिर्यंच १ जलचर मनुष्य नारक
२ स्थलचर ३ खेचर ४ उरःपरिसर्प ५ भुजपरिसर्प