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- श्री प्रश्नव्याकरण सूत्र
तक चक्रवर्ती इसी से प्रकाश करता है, तथा एक दीवार पर गोमूत्रिकाक्रम से २५ और दूसरी दीवार पर २४ चक्राकार मंडल चक्रवर्ती इसी काकिणीरत्न से खडिया: की तरह सुखपूर्वक अंकित करता है।
भरतक्षेत्र के अपरार्ध भाग के विजय के लिए जब तक चक्रवर्ती रहता है, तब तक तमिस्रगुफा और खण्डप्रपातगुफा खुली रहती हैं।
तेरहवाँ खड्गरत्न होता है, जो १२ अंगुल का होता है, लेकिन युद्ध में अजेय होता है । चौदहवाँ दण्डरत्न होता है, जो रत्नमय, और पांच लताओं वाला होता है, जिसमें इन्द्र के वज्र जितनी ताकत होती है । जो बहुत ही लम्बाचौड़ा होता है, जो शत्रु की सेना को त्रास पहुंचाता है, विषम ऊंची-नीची जगहों को सम कर देता है, वह शान्ति करने वाला और मनोरथपूर्ति करने वाला होता है ; सर्वत्र अबाधित होता है और एक हजार योजन नीचे तक घुस जाता है।
ये चौदह ही रत्न एक-एक हजार यक्षों द्वारा अधिष्ठित होते हैं। इसी तरह चक्रवर्ती नौ निधियों के अधिपति होते हैं । वे नौ निधियाँ इस प्रकार हैं- .
"नेसप्पं पंड्यए पिंगलए, सव्वरयणे तहा महापउमे।
काले य महाकाले माणवगमहाणिही संखे ॥" .. . अर्थात्-नैसर्प, पाण्डु, पिंगलक, सर्वरत्न, महापद्म, काल, महाकाल, माणवक और शंख ये नौ महानिधियाँ हैं। संस्कृत ग्रन्थों में इस सम्बन्ध में एक भिन्न ही उल्लेख मिलता है
महापद्मश्च पद्मश्च शंखो मकरकच्छपौ।
मुकुन्द-कुन्द-नीलाश्च खर्वश्च निधयों नव ॥ अर्थात्-महापद्म, पद्म, शंख, मकर, कच्छप, मुकुन्द, कुन्द, नील और खर्व; ये नौ निधियाँ हैं।
इन महानिधियों से चक्रवर्ती का कोश परिपूर्ण रहता है ; उन्हें किसी चीज़ की कमी नहीं रहती।
इतने समृद्ध भी कामभोगों से अतृप्त-वैभव का इतना लम्बा-चौड़ा वर्णन करने के पीछे शास्त्रकार का आशय यही है कि इतने मनचाहे वैभव,ऐश्वर्य, सुखसाधन, रत्न और भोगों के प्राप्त होने पर भी और उनका उपयोग कर लेने पर भी वे एक दिन इस संसार से अतृप्त ही चल देते हैं,तो अल्पपुण्य वाला प्राणी फिस बिसात में हैं ? अतः ऐसा समझ कर अतृप्तिकारी विषयवासनाओं का त्याग करना ही श्रेयस्कर है। इसी से सच्ची तृप्ति और शान्ति मिल सकती है।