Book Title: Prashna Vyakaran Sutra
Author(s): Amarmuni
Publisher: Sanmati Gyanpith

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Page 892
________________ दसवां अध्ययन : पंचम अप ८४७ व्याख्या __ पूर्वसूत्रपाठ में अपरिग्रही के लक्षण के सम्बन्ध में विस्तृत निरूपण करने के बाद उस अपरिग्रही की आवश्यकतानुसार पांचों इन्द्रियों के विविध विषयों को ग्रहण करते समय क्या दृष्टि, क्या भावना और कैसी साधना होनी चाहिए; जिससे वह अपरिग्रहव्रत का भलीभांति निर्वाह एवं संरक्षण कर सके ? इस सम्बन्ध में शास्त्रकार ने इस सूत्रपाठ में अपरिग्रहव्रत की सर्वथा सुरक्षा के लिए पांच भावनाओं का विशद निरूपण किया है। पांच भावनाओं की उपयोगिता-पूर्व सूत्रपाठ में साधुजीवन में अन्तरंग परिग्रह के त्याग के लिए एक बोल से ले कर तेतीस बोल तक की शिक्षात्मक सूची दी गई थी । वास्तव में साधुजीवन में अन्तरंग परिग्रह पर विचार करने के लिए और उससे मुक्त होने के लिए एवं उनमें से हेय, ज्ञेय और उपादेय का विचार करके परिग्रहमुक्ति के यथायोग्य मार्ग पर चलने के लिए साधक को प्रेरणा मिलती है; परन्तु उस प्रेरणा के बावजूद भी साधक कई बार ग्रहण और अग्रहण के चक्कर में पड़ कर एक • के बदले दूसरे को उचित पथ मान बैठता है। बाह्यपरिग्रह का त्याग करके परिग्रहत्याग के लिए साधुजीवन के जो नियम हैं, त्यागप्रत्याख्यान हैं, मर्यादाए हैं या समाचारी है, अथवा बाह्यक्रियाएँ हैं, उनके शाब्दिक भंवरजाल में फंस कर अपने को बहुत बड़ा परिग्रहत्यागी मान बैठता है । परन्तु अन्तरंग जीवननद में अहंकार, क्रोध, विषयों के प्रति आसक्ति, वासना-कामना, प्रतिष्ठा की भूख, अथवा प्रतिकूल विषय मिलने पर अशान्ति , असन्तोष, द्वेष, घृणा, विरोध एवं संघर्ष की भावना आदि हिलोरें लेते रहते हैं। और उक्त अहंकारादि सब एक या दूसरे रूप में अन्तरंग परिग्रह के ही रूप है। इसलिए जिस चीज का मुख्य रूप से त्याग-अग्रहण करना था, उसे ग्रहण करता रहता है और शान्ति, समता, वत्सलता, क्षमा, निर्लोभता, सरलता मृदुता, सत्यता आदि जिन चीजों का ग्रहण करना था, उन्हें छोड़ता जाता है। ऐसी आपाधापी में अपरिग्रह की रक्षा के लिए ये पांच भावनाएं संसारसमुद्र में अन्तरंग परिग्रहरूपी तूफान के कारण डगमगाती हुई उसकी जीवननैया के लिए प्रकाशस्तम्भ का काम करती हैं। साधक फिर सही रास्ता पकड़ लेता है। इसलिए इन पांचों भावनाओं का बहुत बड़ा स्थान है, अपरिग्रही साधक के जीवन में। विषयों का ग्रहण कब परिग्रह है, कब अपरिग्रह ?--परिग्रह का अर्थ मोटेतौर पर ग्रहण करना ही होता है। परन्तु जब तक शरीर है तब तक पांचों इन्द्रियों और मन के विषयों को ग्रहण किये बिना साधक का काम नहीं चल सकता । इन्द्रियों को कदाचित् वह निश्चेष्ट करके बैठ जाएगा, लेकिन मन को गठरी बांध कर कहाँ डालेगा ? वह तो एक क्षण भी मनन-चिन्तन किए बिना रह नहीं सकता। मन अपने

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