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दसवां अध्ययन : पंचम अपरिग्रहसंवर
८५६ रुक्ष और स्निग्ध अनेक पदार्थों का स्पर्श होता है। उसे सर्दियों में गर्म, गर्मियों में ठंडा, तथा चिकना, मुलायम, हलका, स्निग्ध पदार्थ रुचिकर लगता है। किन्तु उन रुचिकर मनोज्ञ पदार्थों का स्पर्श पा कर यदि साधु आसक्ति करता है, मोह करता है, उस स्पर्श को पाने के लिए लालायित हो उठता है, उसे पाने की ही धुन में रहता है, उसे पाने के लिए बेचैन हो उठता है, अपने आपको गुलाम बनाने के लिए भी तैयार हो जाता है, उसी शुभ स्पर्श का स्मरण, मनन और रटन करता है, तो समझना चाहिए कि साधक अभी साधना में कच्चा है । वह अभी पुद्गलासक्त बन कर अपनी संयमसाधना को मिट्टी में मिलाने पर उतारू हो रहा है। वह उन विविध अनुकूल स्पर्शों के मोहक जाल में फंस कर अपने आपको पतन की खाई में धकेल देता है । इसीलिए शास्त्रकार ने कुछ खास-खास स्पर्शों का उल्लेख करके अन्त में उन्हीं के जैसे विभिन्न मनोमोहक स्पर्शों या स्पर्शयोग्य पदार्थों के स्पर्शनेन्द्रियगोचर होने पर उनके सम्बन्ध में आसक्ति, राग, मोह, गृद्धि, लोभ, न्योछावर, तुष्टि, स्मरण और मनन से दूर रहने तथा स्पर्शनेन्द्रिय-संवरभावना के द्वारा अपने अपरिग्रहवत को सुरक्षित रखने का संकेत करते हैं - "फासिदिएण फासिय फासाई मणुन्नभद्दकाई ... दगमंडब..... उउसुहफासा अंगसुहनिव्वुइकरा ""फासेसु मणुम्नभद्दएसु न......" समणेण सज्जियव्वं तत्थ कुज्जा।” इन सूत्रपंक्तियों का अर्थ हम पहले मूलार्थ एवं पदान्वयार्थ में स्पष्ट कर आए हैं। साथ ही, इन शुभ स्पर्शों के ठीक विरोधी अशुभ अमनोज्ञ स्पर्शों के शरीर से स्पर्श होने पर जो साधक रोष से झल्ला उठता है, आवेश में आ कर अवज्ञा कर बैठता है, या उक्त स्पर्शजन्य पदार्थों को तोड़ फेंकता है, उसके लिए लड़ता-झगड़ता है, दाता को भी भला-बुरा कहता है, उस वस्तु या व्यक्ति की निन्दा, अपमान, तिरस्कार, घृणा, उपेक्षा करता है। लोगों के सामने उसे धिक्कारता, डांटता-फटकारता और कोसता है; उसके प्रति नफरत की भावना फैलाता है; तो समझ लो, वह साधक अभी तक अन्तरंगपरिग्रह से मुक्ति की साधना का क-ख-ग भी सीख नहीं पाया है। उसके निर्बल मन पर द्वेषरूपी शत्रु ने घेरा डाल दिया है । द्वेषभाव के सामने उसके मन ने घुटने टेक दिये हैं। इसीलिए शास्त्रकार साधक को हिदायत देते हैं- अमनोज्ञ स्पर्शों या स्पर्शयुक्त पदार्थों का संयोग मिलने पर क्रोध से आगबबूला न हो, आवेश में आ कर उन पदार्थों को फैंके या तोड़फोड़े नहीं, अनिष्ट स्पर्शों का संयोग होने पर वह हाथपैर न पछाड़े, छटपटाए नहीं, किसी को भला-बुरा न कहे, न कोसे, न किसी को डांटे-फटकारे, न मारे-पीटे और न ही किसी के प्रति लोगों में घृणा फैलाए। यानी वह उन अशुभ स्पर्शों या स्पर्शयुक्त पदार्थों के प्रति मन में रोष, द्वप, अवज्ञा. खीज, छेदन-भेदन, वध और घृणा आदि कतई न लाए । इसी बात को शास्त्रकार निम्नोक्त सूत्रपंक्तियों के द्वारा स्पष्ट