Book Title: Prashna Vyakaran Sutra
Author(s): Amarmuni
Publisher: Sanmati Gyanpith

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Page 905
________________ ८६० . श्री प्रश्वव्याकरण सूत्र करते हैं- 'फासिदिएण फासिय फासाइं अमणुन्नपावकाई अणेगवधबंधनतालणंकण दुब्भिकक्खड़ - गुरु-सीयउसिणलुक्खेसु फासेसु अमणुनपावकेसु न “ समणेण रूसियव्वं लब्भा उप्पाएउ ।" इन सूत्रपंक्तियों का अर्थ भी पहले स्पष्ट किया जा चुका है। सारांश यह है कि अपरिग्रही साधक टंडा, गर्म, हलका, भारी, रूखा, खुर्दरा आदि अमनोज्ञ अनिष्ट स्पर्शों का संयोग मिलने पर यह सोचे कि ये सब स्पर्श भी तो पुदगलों को ही ले कर हैं। पुद्गलों का तो यह स्वभाव है। इनमें कोई क्या कर सकता है ? मुझे इन बुरे स्पर्शों के मिलने पर असंतोष प्रगट करना ठीक नहीं । मैं तो विराट आत्मा हूँ, मुझे इन स्पर्शों का गुलाम बन कर या इनसे आत्मा को प्रभावित करके जीना ठीक नहीं। इन बुरे स्पर्शों से अनन्त शक्तिमान आत्मा को घबराना ही क्यों चाहिए ? ___मतलब यह है कि साधु अपने मन को इतनी शिक्षा दे दे कि जब मनोज्ञ स्पर्श या स्पर्शयुक्त पदार्थों का संयोग मिले, तब वह बहके नहीं और अमनोज्ञ स्पर्शों या पदार्थों का संयोग मिले तब बौखलाए नहीं । जीवन को समभाव की पगडंडी पर चलाए। दोनों ही अवस्थाओं में समभाव न खोए । विविध वस्तुओं के स्वभाव का यथार्थ चिन्तन करके मन को उनके प्रति होने वाले रागद्वेष से बचाए । अपने मन को इनसे बिलकुल प्रभावित न होने दे। अपनी आत्मा को सिर्फ ज्ञाता-द्रष्टा बना कर रखे। इसी में उसकी विजय है। अन्यथा, यदि साधक सुखद मनोज्ञ स्पर्शों या स्पर्शयुक्त पदार्थों को पा कर अपने मन पर रागद्वेष का असर होने देगा तो उसकी जबर्दस्त हार होगी। इसी प्रकार अमनोज्ञ दुःखद स्पर्शों या तत्सम्बद्ध पदार्थों को पा कर वह अपने मन को उनसे प्रभावित होने देगा, तो भी वह अपनी साधना को चौपट करके इन स्पर्शों से हार खाएगा। आखिरकार वे स्पर्श यों तो पिंड छोड़ेंगे नहीं। शदियों में शर्दी का, गर्मियों में गर्मी का, वर्षा में दोनों प्रकार का, इसी प्रकार खुर्दरा, हलका, भारी आदि बुरा स्पर्श. तो रहेगा ही, उसे टाला नहीं जा सकेगा। तब फिर केवल बौखलाने से या उन दुःस्पर्शों से घबरा कर भागने से काम कैसे चलेगा ? वीर बन कर संयमी-साधना के लिए कटिबद्ध होकर इन रागद्वेषरूप शत्रुओं से जूझना होगा। साधक की जीत निश्चित ही है । परन्तु वह तभी होगी, जब साधक शुभाशुभ स्पर्शों का संयोग होते ही मन पर उनका कोई असर नहीं होने देगा; वचन पर तो उसकी प्रतिक्रिया बिलकुल नहीं होने देगा और काया की चेष्टा से भी वह उन स्पर्शों का प्रभाव व्यक्त नहीं होने देगा। अर्थात् -प्रिय-अप्रिय स्पर्श का संयोग होते ही मन पर वह संयम का ताला लगा देगा, वचन को वह प्रतिक्रिया व्यक्त करने में मूक बना देगा और शरीरचेष्टा को भी उनके प्रभाव से मुक्त रखेगा। तभी अपरिग्रही

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