Book Title: Prashna Vyakaran Sutra
Author(s): Amarmuni
Publisher: Sanmati Gyanpith

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Page 902
________________ दसवां अध्ययन : पंचम अपरिग्रह-संवर ८५७ प्रयोग से साधक स्वयं स्वस्थ, शान्त, समभावी, जितेन्द्रिय और स्थितप्रज्ञ बन जाएगा। रसनेन्द्रियसंवरभावना का चिन्तन, प्रयोग और फल-परिग्रह से सर्वथा मुक्त होने वाला साधक जब अपनी दिनचर्या में, खासकर भिक्षाचर्या में प्रवृत्त होता है तो उसकी जीभ के सामने कई स्वादिष्ट मनोज्ञ रसीली चीजें या रस आते हैं अथवा उसे भिक्षा में भी कई मनोज्ञ चीजें प्राप्त होती हैं, वह उनका आस्वादन करने में प्रवृत्त होता है; यदि उस समय वह मनोज्ञ स्वादिष्ट रसयुक्त पदार्थों को देख कर मन में आसक्ति लाता है, रागभाव से खाता है, उन्हें पाने के लिए लालायित होता है, उन पर मुग्ध हो कर टूट पड़ता है, रातदिन उन्हीं का स्मरण और चिन्तन-मनन करता है तो यहीं वह अपने संयम को खो देता है। वह विविध मनोज्ञ रसों के मोहक जाल में फंसकर अपनी आत्मा को पतन के गहरे गड्ढे में गिरा देता है। इसीलिए शास्त्रकार ने कुछ खास-खास मनोज्ञ रसों या रसयुक्त पदार्थों के नाम गिना कर अन्त में उन्हीं की किस्म के विभिन्न रसों या पदार्थों के रसनेन्द्रियगोचर होने पर उन पर आसक्ति, राग, , मोह, गृद्धि, लोभ, न्योछावर, तुष्टि,स्मरण और मनन से दूर रहने का तथा रसनेन्द्रियसंवरभावना के चिन्तन के प्रकाश में अपने अपरिग्रहव्रत को सुरक्षित रखने का संकेत करते हैं-'जिभिदिएण साइय रसाणि उ मणुन्नभद्दकाई " उग्गाहिमविविह पाणभोयण""भोयणेसु " रसेसु "न समणेण सज्जियव्वं न सइं च मइं च तत्थ कुज्जा।' इन सूत्रपंक्तियों का अर्थ मूलार्थ एवं पदान्वयार्थ से स्पष्ट है। इन शुभ मनोज्ञ रसों के ठीक विपरीत, जो अमनोज्ञ अशुभ रस हैं; उनका जीभ से स्पर्श होने पर यदि साधक रोष से तिलमिला उठता है, उन्हें ठुकरा देता है, तोड़-फोड़ देता है, फैंक देता है, ठंडे, बासी, रूखे, सूखे, नीरस, सत्त्वहीन, सड़े, गले पदार्थों को देख कर हाथ-पैर पछाड़ता है, देने के लिए उद्यत दाता से लड़ पड़ता है, उसकी निन्दा, अपमान, अवज्ञा या मारपीट करता है, उसके प्रति लोगों में घृणा फैलाता है, लोगों के सामने उस पदार्थ की या पदार्थ के देने बाले की निन्दा करता है, धिक्कारता है या डांटता-फटकारता है, तो समझ लो, वह साधक अन्तरंग परिग्रह की चपेट में आ कर द्वषभाव से पराजित हो गया। साधक के निर्बल मन पर द्वेषभावरूपी शत्रु ने अधिकार जमा लिया। इसी लिए शास्त्रकार साधक को सूचित करते हैं कि वह अमनोज्ञ रसों या रसयुक्त पदार्थों से जिह्वन्द्रिय का स्पर्श होने पर क्रोध से तमतमाए नहीं, आवेश में आ कर पात्र को न तोड़-फोड़ दे, हाथ - पैर न पछाड़े, मुंह न मचकोड़े, लड़ाईझगड़ा न कर बैठे, दाता के यहाँ जा कर उसे भलाबुरा न कहे, न उस पर खीजे, न उसे डांटे-फटकारे, और न ही उसे मारे-पीटे, न उसके प्रति लोगों में घृणा

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