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दसवां अध्ययन : पंचम अपरिग्रह-संवर
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दोनों में मध्यस्थ-सम रहे । न तो मन को मनोज्ञ रूपों में ललचाए और न अमनोज्ञ रूपों में बिगाड़े।
निष्कर्ष यह है कि अपरिग्रहव्रती साधु को अपने मन को इस भावना की ऐमी तालीम देनी होगी, जिससे वह मनोमोहक एवं नेत्रप्रिय रूप आँखों के सामने आते ही उनके प्रवाह में न बह जाय, और अभद्र, असुहावने, अमनोज्ञ अशुभ रूप
आँखों के सामने आते ही बौखला न उठे। शुभ या अशुभ रूपों को पुद्गल के खेल समझे । आखिर तो ये रंग या रूप वगैरह सभी नश्वर हैं, मिट्टी में मिल जाने वाले हैं। फिर इन सुरूपों पर मोह या आसक्ति करके और कुरूपों पर घृणा या द्वेष करके अपने संयम को क्यों धूल में मिलाया जाय ! अशुभ रूप साधक की आत्मा का क्या बिगाड़ेंगे ? रूप अपने आप में न अच्छा है, न बुरा। उसका निर्णय तो अपनी प्रकृति के अनुसार व्यक्ति के विचार ही करते हैं न ! अतः सुरूप या कुरूप का प्रभाव मन पर न पड़ने देना ही साधक की जीत है। अन्यथा, साधक की आत्मा की हार है । अतः विजय इसी में है कि इन शुभ या अशुभ रूपों को आँखों से देख कर भी मन पर असर न होने दे; वचन से भी उस रूपदर्शन की अच्छी या बुरी प्रतिक्रिया प्रगट न करे तथा शरीरचेष्टा से भी उन रूपों का प्रभाव व्यक्त न करे। अर्थात्-किसी भी प्रिय या अप्रिय रूप को देख कर मन को बिलकुल निश्चेष्ट बना दे, वचन को उसकी प्रतिक्रिया प्रगट करने से मूक बना ले तथा काया की चेष्टाओं को भी उसके प्रभाव से शून्य बना दे । यही अपरिग्रही साधु के द्वारा अन्तरंग-परिग्रह से सर्वथा मुक्त रहने की साधना है। इस प्रकार की भावना के चिन्तन व प्रयोग से साधक समभावी, जितेन्द्रिय एवं स्थितप्रज्ञ बन सकता है। - घ्राणेन्द्रियसंवरभावना का चिन्तन, प्रयोग और फल-अपरिग्रही साधक जब अपने नित्यकृत्य में प्रवृत्त होता है तो कई मनोज्ञ भोज्य पदार्थों या कई अन्य सुगंधपूर्ण पदार्थों की सुगन्ध उसके नाक से आ कर टकराती है, उस समय उन भीनी-भीनी मधुर मनोमोहक सुगन्धों को पा कर यदि वह असावधान हो कर उन पर रागभाव लाता है, उन्हें सूघने के लिए ललचाता है, उस सुगन्ध में आसक्त बनता है, उन्हें सूधने के लिए ठिठक जाता है या वहाँ से दूर चले जाने पर भी मन में उनका पुनःपुनः स्मरण या चिन्तन करता है तो यहीं साधक फिसलता है । ये सारे ही रागभाव के विकार उसे घेर लेते हैं और अन्तरंग परिग्रह के जाल में फंसा देते हैं। इसीलिए शास्त्रकार ने कुछ खास-खास मनोज्ञ गंधों के नाम गिना कर अन्त में उन्हीं की किस्म के विभिन्न सुगन्धों के घ्राणगोचर होने पर उन पर आसक्ति, राग, मोह, लोभ गृद्धि, न्योछावर, तुष्टि, स्मरण और मनन से उसे घाणेन्द्रियसंवरभावना के प्रकाश में शीघ्रातिशीघ्र