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श्री प्रश्नव्याकरण सूत्र
की चपेट में आ कर द्वेषरूपी शत्रु से दब जाता है। उसके मन पर द्वंषरूपी रिपु अधिकार जमा लेता है। ये सारे द्वेषभाव के ही परिवार हैं, जो साधक में बौखलाहट पैदा करके उसे अन्तरंग परिग्रह के गड्ढे में गिरा देते हैं । इसीलिए शास्त्रकार ने कुछ खास-खास अमनोज्ञ रूपों के नाम गिना कर अन्त में, उसी प्रकार के अन्यान्य अमनोज्ञ रूपों के दृष्टिगोचर होने पर उनके या उनसे सम्बन्धित व्यक्तियों या वस्तुओं के प्रति रोष, अवज्ञा द्वेष, घृणा, निन्दा, खीज या चिढ़, छेदन-भेदन (तोड़फोड़), ताड़न तर्जन, वध आदि से झटपट बचने का चक्षु रिन्द्रियसंवरभावना के प्रकाश में निर्देश किया है- चक्खिदिएण पासिय रूवाई अमणुनपावकाइ" .... एवमादिए सु अमणुग्नपावकेसु न तेसु समणेण रूसियव्वं .... लब्भा उप्पातेउं ।' इन सूत्रपक्तियों का अर्थ भी मूलार्थ तथा पदान्वयार्थ से स्पष्ट है । कुछ खास स्थलों पर प्रकाश डालना उचित समझ कर नीचे कुछ स्थलों पर प्रकाश डालते हैं
- गंडि-कोढिक-कुणि-उदरि-कच्छुल्ल..."सप्पिसल्लग-वाहि-रोगपीलियं-जिसके गले में गंडमाला हो, उसे गंडी कहते हैं। यह चार प्रकार का होता है । वातज, पित्तज, कफज और सन्निपातज। जिसके शरीर में १८ प्रकार के कुष्ट रोगों में से कोई सा भी कुष्टरोग हो, उसे कोढी कहते हैं। वे १८ प्रकार ये हैं . (१) अरुण, (२) दुबर, (३) स्पर्शजिह्व, (४) करकपाल, (५) काकन, (६) पौंडरीक, (७) दद्रु, (८) स्थूल मारुक्क, (९) महाकुष्ठ, (१०) एककुष्ठ, (११) चर्मदल, (१२) विसर्प, (१३) परिसर्प, (१४) विचिका, (१५) सिध्म, (१६) किट्टिभि, (१७) पामा (१८) शतारुक् । गर्भाधान के दोष से अथवा अन्य किसी कारण सेएक पैर छोटा हो, अथवा एक हाथ छोटा हो, उसे कुणी- टोंटा या लूला कहते हैं । जिसके भयंकर उदरव्याधि हो, उसे जलोदरी कहते हैं । जलोदर रोग ८ प्रकार का होता है-(१) पृथक्, (२) समस्त, (३) अनिलौघ, (४) प्लीहोदर, (५) बद्धगुद, (६) आगन्तुक, (७) वेसर, (८) जलोदर । श्लीपदी-जिसके पैर कठोर हो गए हों, जकड़ गए हों, उसे श्लीपदी कहते हैं । इस रोगी के पैर धीरे-धीरे हाथी के पैर की तरह सूज जाते हैं । इसे हाथीपगा भी कहते हैं। - इन सब व्याधियों या रोगों से विकृत अंग वाले लोगों को देख कर मन में उनके प्रति घृणा, द्वेष, अरुचि, अप्रीति या द्वेष न लाना चाहिए। ऐसे विकृतांग या विकलांग व्यक्तियों को देख कर साधु को सोचना चाहिए- 'अहो ! कर्मों की कितनी विचित्रता है ! ये बेचारे अपने अशुभकर्मों के उदय से फल भोग रहे हैं। मुझे इन्हें चिढ़ा कर, व्यथित करके या घृणा रोष करके व्यर्थ ही और नये कर्म क्यों बांधने चाहिए ? यहीं साधक की समभाव की परीक्षा होती है। वह मनोज्ञ या अमनोज्ञ