Book Title: Prashna Vyakaran Sutra
Author(s): Amarmuni
Publisher: Sanmati Gyanpith

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Page 901
________________ ८५६ श्री प्रश्नव्याकरण सूत्र बचने का निर्देश सूत्रपंक्तियों द्वारा किया है—"घाणिदिएण अग्घाइय गंधाई मणुन्नभद्दगाई...... जलयथलयसरस...... गंधेसु मणुन्नभद्दएसु....... समणेण न रज्जियव्वं...... न सइं मइंच तत्थ कुज्जा" इन सूत्रपंक्तियों का अर्थ पहले ही स्पष्ट किया जा चुका है। वैसे ही यदि इन सुगन्धों से ठीक विपरीत · मन को बुरे लगने वाले अमनोज्ञ दुर्गन्धों का नाक से स्पर्श होने पर क्रोध से तिलमिला उठता है, ठुकरा देता है, तोड़ता-फोड़ता है और उन्हें डांट-फटकार बताता है, उनकी निन्दा करता है, भर्त्सना करता है, या घृणा फैलाता है, दुरदुराता है, लोगों के सामने उन्हें धिक्कारता है या उन दुर्गन्धभरे व्यक्तियों को मारता-पीटता है, धमकाता है, या लड़ाई ठान बैठता है तो यहीं साधक की हार हो जाती है। यहीं वह अन्तरंग परिग्रह की चपेट में आकर द्वेषरूपी दुश्मन से दब जाता है। उसके मन पर द्वषरूपी शत्रु कब्जा कर लेता है। ये सारे द्वेषभाव के ही परिवार हैं, जो साधक के मन में बौखलाहट पैदा करके उसे मनचाहा नचाते हैं और अन्तरंग परिग्रह के गर्त में धकेल देते हैं। इसीलिए 'शास्त्रकार अमनोज्ञ गन्धों के कुछ नामनिर्देश करके अन्त में, उसी प्रकार के विभिन्न अमनोज्ञ गन्धों के या उनसे सम्बन्धित व्यक्तियों या साधनों के घ्राणगोचर होने पर उनके प्रति रोष, अवज्ञा, द्वेष, घृणा, निन्दा, खीज या चिढ़, छेदन-भेदन, ताडनतर्जन या वध आदि के प्रयोग से बचने का घ्राणेन्द्रियसंवरभावना के चिन्तन के प्रकाश में निर्देश करते हैं-'घाणिदिएण गंधाइ अमणुनपावकाई" एवमादिएसु अमणुन्नपावकेसु न तेसु समणेण रूसियव्वं लब्भा उप्पातेउं ।' इन सूत्र पंक्तियों का अर्थ हम पहले स्पष्ट कर चुके हैं। तात्पर्य यह है कि उन अमनोज्ञ दुर्गन्धों से सम्पर्क होने पर साधक यह सोचे कि संसार में विभिन्न वस्तुओं का स्वभाव ही ऐसा है, इसमें हमें क्यों द्वेषभाव लाना चाहिए ? ये सुगन्ध या दुर्गन्ध सभी एक दिन नष्ट होने वाले हैं। साधक को अपना मन इतना प्रशिक्षित कर लेना चाहिए कि घ्राणप्रिय मनोमोहक सुगन्ध के स्पर्श से वह बहक न उठे और अमनोज्ञ दुर्गन्ध के सम्पर्क से वह तिलमिलाए नहीं। इन्हें पुद्गलों का खेल समझे। इन नश्वर सुगन्धों या दुर्गन्धों के विषय में मन को राग-द्वेष के बीहड़ में भटका कर क्यों आत्मा को बिगाड़ा जाय ? अतः साधक की जीत इसी में है कि वह इन शुभ या अशुभ गन्धों से नाक का संस्पर्श होने पर भी मन पर उनका असर न होने दे, वचन से भी कोई प्रतिक्रिया व्यक्त न करे और न शरीर की चेष्टा को ही उनसे प्रभावित होने दे । अर्थात् किसी भी सुगन्धित या दुर्गन्धित पदार्थ या उसकी शुभाशुभ गन्ध को पा कर मन को बिलकुल स्थिर रखे, वचन को उसकी प्रतिक्रिया व्यक्त करने से मूक बना दे और काया की चेष्टा को उसके प्रभाव से शून्य बना दे। यही अपरिग्रही साधु की अन्तरंग परिग्रह से सर्वथा मुक्त होने की कुंजी है। इस प्रकार की भावना के चिन्तन और

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