Book Title: Prashna Vyakaran Sutra
Author(s): Amarmuni
Publisher: Sanmati Gyanpith

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Page 895
________________ ८५० श्री प्रश्नव्याकरण सूत्र वालों के भी नाम गिना कर उनका निषेध किया है, इसी प्रकार 'न रूसियव्वं' के साथसाथ 'न हीलियब्वं' आदि द्वेष के साथियों या परिवार वालों को अपनाने से भी इन्कार किया है। हाँ, तो निष्कर्ष यह हुआ कि पांचों इन्द्रियों के विषयों के आगमन के समय साधक को परिवारसहित रागद्वेषरूपी इन शत्रुओं से सावधान रहना चाहिए; इन्हीं का ग्रहण करना अन्तरंग परिग्रह है और इन्हीं को छोड़ना अपरिग्रह है। केवल विषयों का ग्रहण करना अपने आप में परिग्रह नहीं है। इसके लिए अपरिग्रही साधक को प्रतिक्षण अप्रमत्त हो कर रहना है, अन्यथा साधक पर कब ये हमला कर बैठेंगे, कोई पता नहीं है। साधक की जरा-सी असावधानी से राग और द्वेष अपने आक्रमण को सफल कर बैठेंगे । उसकी जरा-सो गफलत से साधक बाह्य परिग्रह का त्याग होने के बावजूद भी अपरिग्रही के बदले अन्तरंग परिग्रही बन बैठेगा। इन दोनों शत्रु ओं में से एक लुभावना है, दूसरा डरावना है। हैं दोनों ही खतरनाक ! अगर साधक इनके . बहकावे में आ जाता है तो ये बहुत शीघ्र ही प्रसन्नचन्द्र सजर्षि सरीखे उच्चभूमिकारूढ़ बड़े-से-बड़े साधक को भी पछाड़ते देर नहीं लगाते । यही कारण है कि अपरिग्रहसंवर के प्रसंग में उक्त अन्तरंग परिग्रह से साधक की रक्षा के हेतु शास्त्रकार पांच भावनाओं को चिन्तनात्मक प्रयोग के रूप में बताते हैं, जिनका मनन-चिन्तन करके साधु अपनी अन्तरात्मा को पवित्र और निर्दोष बना लेता है। इन भावनाओं का जिन्दगीभर तक सतत अप्रमत्त हो कर प्रयोग करने पर ही ये फलदायिनी एवं दृढ़ संस्कारामृतपायिनी होती हैं । और तभी वह अन्तरंग परिग्रह का सर्वथा त्यागी और जितेन्द्रिय बन सकेगा। इसी बात को शास्त्रकार प्रत्येक भावना के अन्त में कहते हैं ........ भावणाभावितो भवति अंतरप्पा मणुन्नामणुन्न-सुभिदुन्भि-रागदोस-पणिहियप्पा साहू मणवयणकायगुत्त संवुडे पणिहितिदिए चरेज्ज धम्मं ।' इसका अर्थ मूलार्थ एवं पदान्वयार्थ में स्पष्ट किया जा चुका है। अब हम क्रमश: प्रत्येक भावनावस्तु का संक्षेप में विश्लेषण प्रस्तुत करेंगे। श्रोत्रेन्द्रियसंवररूप शब्दनिःस्पृहभावना का चिन्तन, प्रयोग और फल-परिग्रह का अन्तरंग और बहिरंगरूप से परमत्यागी साधु जब अपनी कोई भी प्रवृत्ति करता है तो उसके कानों में कई प्रकार के शब्द आ कर टकराते हैं। उनमें से कई कर्णप्रिय होते हैं, कई कर्णकटु भी। कई शब्द ऐसे सुहावने लगते हैं कि साधक का मन वहाँ ठिठक कर सुनने को हो जाता है, वह मन ही मन चाहता है कि ये मधुर गीत होते ही रहें। इसके उपरान्त जब वह उस संगीतस्थल से आगे चल देता है, तब भी कान में बार-बार उस सुने हुए मनोमोहक संगीत की स्मृति ताजा हो उठती है, उसी को पुनः पुनः सुनने के लिए मन लालायित हो उठता है। ये सारे ही राग के प्रकार हैं, जो साधक के जीवन को अन्तरंग परिग्रह के गर्त में डाल देते हैं । इसीलिए शास्त्रकार

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