Book Title: Prashna Vyakaran Sutra
Author(s): Amarmuni
Publisher: Sanmati Gyanpith

View full book text
Previous | Next

Page 896
________________ दसवां अध्ययन : पंचम अपरिग्रह-संवर ८५१ ने कुछ खास-खास मनोज्ञ शब्दों के नाम गिना कर अन्त में उन्हीं प्रकार के शब्दों के कर्णगोचर होने पर उनके प्रति राग, आसक्ति, गृद्धि, लोभ, मोह, न्योछावर, तुष्टि, स्मरण, और मनन से इस श्रोत्रेन्द्रियसंवरभावना के प्रकाश में शीघ्र बचने का निर्देश किया है ---''पढमं सोइदिएण सोचा सद्दाइ मणुन्नभद्दाई ..... वरमुरय ... सद्दाइ...." गुणवयणाणि महुरजणभासियाई ....."न; तेसु""रज्जियव्वं न सई च मईच तत्थ कुज्जा।" इन सब सूत्रपंक्तियों का अर्थ हम मूलार्थ एवं पदान्वयार्थ में स्पष्ट कर चुके हैं। इसी प्रकार. इस तरह के मनोज्ञ और कर्णप्रिय शब्दों से ठीक विपरीत शब्द अमनोज्ञ, कर्कश, कर्णकटु, कठोर, असह्य और मर्मच्छेदी लगते हैं कि यदि साधक उन्हें सुन कर झल्ला उठता है, झुंझला कर उन शब्दों को या सुनाने वाले को गाली देने लगता है, भला-बुरा कहने लगता है, उसे डांटता-फटकारता है या वहाँ से उसे हटाने के लिए पत्थर या ढेले मारता है, अथवा उसके थप्पड़ या मुक्का जमा देता है, या उन अप्रिय शब्दों की या कहने वाले की निन्दा या भर्त्सना करने लगता है, अथवा प्रसन्नचन्द्र राजर्षि की तरह मन ही मन घमासान युद्ध छेड़ बैठता है, अथवा मुह से, शाप, आक्रोश, या अपशब्द निकालता है, द्वेषवश हो कर लोगों में उसे नीचा दिखाने का उपक्रम करता है, लोगों में उन शब्दों या उन शब्दों के कहने वाले के के प्रति नफरत पैदा करता है तो वहीं साधक की हार हो जाती है। वहीं साधक अन्तरंग परिग्रह की पकड़ में आ जाता है और द्वेषनामक शत्रु से पराजित हो जाता है। ये सारे ही द्वेष के प्रकार हैं, जो साधक के जीवन को अन्तरंग परिग्रह की खाई में धकेल देते हैं। इसीलिए शास्त्रकार ने कुछ खास-खास अमनोज्ञ शब्दों के नाम गिना कर अन्त में उन्हीं की तरह के कर्णकटु शब्दों के कर्णगोचर होने पर उनके प्रति रोष, अवज्ञा, निन्दा, खीज या चिढ़, छेदन, भेदन, ताड़न-तर्जन, वध, द्वेष, घृणा आदि से श्रोत्रेन्द्रियसंवरभावना के प्रकाश में झटपट बचने का निर्देश किया है। शास्त्रकार ने अमनोज्ञ कर्णकटु शब्दों के कान में पड़ते ही इस भावना को प्रयोग करने का इन सूत्रपंक्तियों द्वारा संकेत किया है—'सोइदिएण सोच्चा सद्दाई अमणुन्नपावकाई ......"अक्कोस-फरस ... "समणेण न रूसियव्वं न वहेयव्वं, न दुगुंछावत्तियाए लब्भा उप्पाएउ ।' इन सूत्रपंक्तियों का अर्थ मूलार्थ एवं पदान्वयार्थ में हम स्पष्ट कर चुके हैं। निष्कर्ष यह है कि साधु को अपने मन को इस भावना की ऐसी तालीम देनी. चाहिए; ताकि कर्णप्रिय शब्द कान में पड़ते ही वह बहक न जाय और कर्णकटु शब्द कान में पड़ते ही वह बौखला न उठे। यानी उसे मनोज्ञ या अमनोज्ञ, कर्णप्रिय या कर्णकटु, शुभ या अशुभ शब्दों को भाषावर्गणा के पुद्गल मान कर उनके श्रवण का अपने मन पर जरा भी असर नहीं होने देना है। अगर साधक कर्णकटु अमनोज्ञ शब्दों

Loading...

Page Navigation
1 ... 894 895 896 897 898 899 900 901 902 903 904 905 906 907 908 909 910 911 912 913 914 915 916 917 918 919 920 921 922 923 924 925 926 927 928 929 930 931 932 933 934 935 936 937 938 939 940