Book Title: Prashna Vyakaran Sutra
Author(s): Amarmuni
Publisher: Sanmati Gyanpith

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Page 891
________________ ८४६ ___ श्री प्रश्नव्याकरण सूत्र भलीभांति यह संवर परिनिष्ठित हो जाता है-जम जाता है। धैर्यशाली बुद्धिमान् अपरिग्रही साधक को जीवन के अन्त तक नित्य इस भावना-योग का चिन्तन और प्रयोग करना चाहिए, जो आश्रवरहित है, निर्दोष है, पापछिद्र को जिसमें प्रवेश का अवकाश नहीं है, पापों के स्रोत से विहीन है, सक्लिष्ट परिणामों से शून्य है, शुद्ध है, समस्त तीर्थंकरों द्वारा अनुमत है । - इस तरह यह पांचवां परिग्रहविरमणरूप संवरद्वार उचित समय पर काया से स्पर्श किया हुआ-अमल में लाया हुआ, पालन किया हुआ, अतिचारों को दूर करके शोधन किया हुआ, अन्त तक पार लगाया हुआ, दूसरों को आदरपूर्वक बताया हुआ या गुणानुवादपूर्वक उपदिष्ट, लगातार पालन किया हुआ ही भगवान् की या शास्त्र की आज्ञानुसार आराधित होता है। इस प्रकार ज्ञातकुलोत्पन्न श्रमणशिरोमणि भगवान् महावीर प्रभु के द्वारा हितोपदेशक के रूप में बताया गया, भव्यों के सामने अर्थरूप से प्ररूपित, लोक में प्रसिद्ध किया गया, समस्त नयों और प्रमाणों से सिद्ध, उत्तम सिद्धों की आज्ञारूप, मर्यादाओं की सुरक्षा के लिए बतलाया हुआ, भलीभांति उपदिष्ट; मंगलमय यह पांचवां संवरद्वार समाप्त हुआ; ऐसा मैं (सुधर्मास्वामी) कहता हूँ। हे सुव्रत ! ये पांचों संवरद्वार (महाव्रत) सैकड़ों निर्दोष-शुद्ध हेतुओं के कारण विस्तीर्ण होते हुए भी अरिहंत भगवान् के शासन में संक्षेप में पाँच ही बताए हैं, विस्तार से तो ये पच्चीस होते हैं, पांच समितियों से युक्त, पांच महाव्रतों की पूर्वोक्त २५ भावनाओं के सहित तथा ज्ञान और दर्शन के द्वारा मन-वचन-काया से सुसंवृत तथा सदा प्रयत्न से प्राप्त संयमयोग की रक्षा एवं अप्राप्त संयमयोग की प्राप्ति के लिए पुरुषार्थ करने से सुविशुद्धदष्टिवाला संयमी, स्वपर कल्याणसाधक साधु इन पांचों संवरद्वारों की लगातार आराधना करके भविष्य में चरमशरीरी होता है, अथवा पाठान्तर को दष्टि से अर्थ होता है-भविष्य में वह कार्माणशरीर का ग्रहण नहीं करता।

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